लेफ्टिनेंट जनरल एस एल नरसिम्हन (सदस्य, नेशनल सेक्युरिटी एडवाइजरी बोर्ड, प्रधानमंत्री कार्यालय एवं महानिदेशक, समकालीन चीन अध्ययन केन्द्र, भारत सरकार) से न्यूज1इंडिया के राजनीतिक संपादक संजय सिंह की खास बातचीत
जी हॉ, हमनें भी चीनी सैनिक मारे
पूर्वी लद्दाख में एलएसी पर चीन और भारत के बीच सैन्य तनाव का केंद्र बनी गलवन घाटी तकरीबन दो माह से चर्चा में है। 15 जून 2020 की रात इस विवाद ने खूनी रंग ले लिया, जिसमें भारतीय सेना के एक अधिकारी समेत 19 जवान शहीद हो गए हैं। भारतीय सेना के मुताबिक झड़प में चीनी सेना के 43 जवान भी मारे गए हैं और घायल हुए हैं। करीब 45 साल पहले भी इसी सीमा पर भारत-चीन सेना के बीच खूनी संघर्ष हुआ था। इसके पहले एलएसी पर भारतीय जवान की मौत 45 वर्ष पहले 1975 में हुई थी। तब चीन के सैनिकों ने भारतीय सीमा में पेट्रोलिंग कर रहे असम राइफल्स के जवानों पर घात लगा कर हमला किया था और चार भारतीय जवानों की मौत हो गई थी।
भारत-चीन सीमा पर मौजूद इस घाटी का इतिहास देखें तो पता चलता है कि गलवन समुदाय और सर्वेंटस ऑफ साहिब किताब के लेखक गुलाम रसूल गलवन इसके असली नायक हैं। उन्होंने ही ब्रिटिश काल के दौरान वर्ष 1899 में सीमा पर मौजूद नदी के स्रोत का पता लगाया था। नदी के स्रोत का पता लगाने वाले दल का नेतृत्व गुलाम रसूल गलवन ने किया था। इसलिए नदी और उसकी घाटी को गलवन बोला जाता है। वह उस दल का हिस्सा थे, जो चांग छेन्मो घाटी के उत्तर में स्थित इलाकों का पता लगाने के लिए तैनात किया गया था।
कश्मीर में घोड़ों का व्यापार करने वाले एक समुदाय को गलवन बोला जाता है। कुछ स्थानीय समाज शास्त्रियों के मुताबिक इतिहास में घोड़ों को लूटने और उन पर सवारी करते हुए व्यापारियों के काफिलों को लूटने वालों को गलवन बोला जाता रहा है। कश्मीर में जिला बड़गाम में आज भी गलवनपोरा नामक एक गांव है। गुलाम रसूल गलवन का मकान आज भी लेह में मौजूद है। अंग्रेज और अमेरिकी यात्रियों के साथ काम करने के बाद उसे तत्कालिक ब्रिटिश ज्वाइंट कमिश्नर का लद्दाख में मुख्य सहायक नियुक्त किया था। उसे अकासकल की उपाधि दी गई थी। ब्रिटिश सरकार और जम्मू कश्मीर के तत्कालीन डोगरा शासकों के बीच समझौते के तहत ब्रिटिश ज्वाइंट कमिश्नर व उसके सहायक को भारत, तिब्बत और तुर्कीस्तान से लेह आने वाले व्यापारिक काफिलों के बीच होने वाली बैठकों व उनमें व्यापारिक लेन देन पर शुल्क वसूली का अधिकार मिला था। वर्ष 1925 में गुलाम रसूल की मौत हो गई थी। गुलाम रसूल की किताब सर्वेंटस ऑफ साहिब की प्रस्ताना अंग्रेज खोजी फ्रांसिक यंगहस्बैंड ने लिखी है। वादी के कई विद्वानों का मत है कि अक्साई चिन से निकलने वाली नदी का स्नोत गुलाम रसूल ने तलाशा था। यह सिंधु नदी की प्रमुख सहायक नदियों में शामिल श्योक नदी में आकर मिलती है।
ट्रैवल्स, टैक्स एंड कलाइंब के लेखक हरीश कपाडिया ने अपनी किताब में लिखा है कि गुलाम रसूल गलवन उन स्थानीय घोड़ों वालों में शामिल था, जिन्हें लार्ड डूनमोरे अपने साथ 1890 में पामिर ले गया था। वर्ष 1914 में उसे इटली के एक वैज्ञानिक और खोजी फिलिप डी ने कारवां का मुखिया बनाया था। इसी दल ने रीमो ग्लेशियर का पता लगाया था। लद्दाख में कई लोग दावा करते हैं कि गलवन जाति के लोग आज की गलवन घाटी से गुजरने वाले काफिलों को लूटते थे। इसलिए इलाके का नाम गलवन पड़ गया।
बहरहाल ….गलवान घाटी में भारत और चीन की सेनाओं के बीच खूनी संघर्ष की अधिकारिक वास्तविक जानकारी, दोनों देशों के बीच स्थित लाइन आफ एक्चुअल कंट्रोल (एलएसी) पर मौजूदा स्थिति और भारत सरकार और सेना की रणनीति को लेकर मैंने लेफ्टिनेंट जनरल एस एल नरसिम्हन से खास बातचीत की। चीनी भाषा के जानकार और चीनी मामलों के विशेषज्ञ लेफ्टिनेंट जनरल नरसिम्हन ने सेना में कई महत्वपूर्ण पदों पर अपनी सेवाएं दी हैं। मौजूदा समय में वे सदस्य, नेशनल सेक्युरिटी एडवाइजरी बोर्ड, प्रधानमंत्री कार्यालय एवं महानिदेशक, समकालीन चीन अध्ययन केन्द्र, विदेश मंत्रालय, भारत सरकार के पदों पर सेवारत हैं।
प्रस्तुत है उनसे बातचीत के अंश-
सबसे पहले हमें यह बताइए कि एलएसी पर गलवान घाटी में उस रात क्या हुआ था? वहां हमारे बीस सैनिक शहीद हो गए थे और ये भी बात कही जा रही है कि चीन के भी 40-42 सैनिक मारे गए…?
– हां, मैं यह कहना चाहूंगा कि 15 जून की रात को, जब डिसएंगेजमेंट का प्रोसेस शुरू था उस समय हमारे जवान यह जानकारी प्राप्त करने के लिए वहां गए थे कि चीन की फौज पीछे हटी है या नहीं। उस समय उन्हें यह देखने को मिला कि हमारे क्षेत्र में उनका एक स्ट्रक्चर बना हुआ था। इस पर हमारी कंपनी ने उन्हें बताया कि कृपया इसे हटाइए। तो उस समय पहले तो वह हट गए थे। हमारी टुकड़ी वहां एक टेंट लगाने लग गई थी। मगर थोड़े समय बाद जो चीनी सैनिक पीछे हटे थे, वह बड़ी तादाद में अपने साथ सैनिक लेकर आ गए। तब यह हाथापाई-मुठभेड़ हुई। इस वजह से आपको देखने को मिला कि हमारे 20 जवान शहीद हुए। हमें जानकारी है कि इस हाथापाई में उनका भी काफी मात्रा में नुकसान हुआ है। उनके भी काफी सैनिक मारे गए हैं और यह संख्या हमसे है।
लेकिन चीन का कहना है कि भारतीय सैनिकों ने एलएसी पार की थी और भारतीय प्रधानमंत्री का जो बयान है उन दोनों में बड़ा अंतर्विरोध है। इसको लेकर विपक्ष प्रहार कर रहा है कि भारत सरकार नाकामयाब साबित हुई है?
– आप पीएम के स्टेटमेंट को लेकर जो बात कर रहे हैं वह आॅल पार्टी के मीटिंग के बाद में उन्होंने जो स्टेटमेंट दिया था वह गलवान को मद्देनजर रखते हुए दिया था। इसके अंतर्गत उन्होंने कहा था कि हमारी फौज ने देखा कि चीन ने कुछ स्ट्रक्चर बनाया हुआ है उसे हटाकर पीछे धकेलने में हमारी फौज कामयाब रही। इस मतलब से यह स्टेटमेंट दिया गया था। लेकिन लोगों ने उसका कई तरीके से तोड़-मरोड़कर मतलब निकाला। जिस कारण यह विवाद पैदा हुआ।
सर, अभी वहां पर क्या हालात है। क्या हम मान सकते हैं कि अभी वहां के हालात सामान्य है और चीनी फौज हमारे इलाके में नहीं है? उन्होंने एलएसी पार कर हमारे इलाके में कब्जा नहीं किया है?
– गलवान के तौर पर तो मैं निश्चित तौर पर कह सकता हूं कि एलएसी पर हमारे क्षेत्र में उनका कोई भई नुमाइंदा नहीं है। और वहां पर भारतीय सेना और चीनी सेना के दरम्यान अंतर है। जमीनी स्तर पर बातचीत चल रही है। आज आपने सुना ही होगा कि मेजर स्तर की बातचीत जारी है। तो इस प्रकार हम कह सकते हैं कि वहां शांति तो है लेकिन तनावपूर्ण हैं।
एलएसी पर कई जगह विवाद की स्थिति है। उसमें एक गलवान घाटी है और साथ ही एक-दो जगह और हैं। तो क्या आपको लगता है कि यह टकराव बढ़ता जाएगा? सीमा पर स्थितियां और खराब होती जाएंगी?
– पहली बात तो यह है कि गलवान घाटी में कोई समस्या नहीं थी। मई महीने में हुए टकराव के बाद यह समस्या खड़ी हुई है। इसके पहले गलवान वैली में कोई समस्या नहीं थी। आप देखेंगे कि भारत और चीन के दरम्यान कोई सहमत सीमा नहीं है, जिसके कारण आपने देखा होगा कि पिछले साल लगभग 600 टकराव इधर उधर हुए हैं। इस बारे में संसद में भी बताया गया था। मुख्य समस्या यह है कि सहमत सीमा न होने के कारण जब दोनों फौजें पेट्रोलिंग के दौरान आमने-सामने आती हैं तो इस प्रकार के टकराव देखने को मिलते हैं। और पीछे हमने कोशिश भी की थी कि उनकी जो एलएसी है उसका और हमारी जो एलएसी है उसका मैप एक्चेंज किया जाए। ¨Éþè{É एक्सचेंज करने में सेंट्रल में तो हम सफल हो गए थे, लेकिन वहां वेस्टर्न सेक्टर में चीनियों ने मैप एक्चेंज करने से इनकार कर दिया। इस वजह से सारी चीजें वहीं की वहीं रूकी हुई हैं। अगर हम डिप्लोमैटिक तरीके से या राजनीतिक तरीके से, किसी भी प्रकार से एलएसी को रेखांकित करें तो इस प्रकार के टकराव से हमेशा के लिए छुटकारा मिल सकता है।
क्या दौलत बेग ओल्डी तक हमारी जो डीएसडीबीओ रोड बनी है उसको लेकर चीन को समस्या है? क्या उस पर नजर रखने के लिए पेट्रोलिंग प्वाइंट (पीपी)- 14 पर नियंत्रण चाहता है, जो ऊंची पहाड़ी पर है?
– डीएसडीबीओ रोड को लेकर चीन की तरफ से कोई ज्यादा आपत्ति नहीं आया है। ऐसा इस वजह से कि इस रोड का जो एलाइनमेंट है श्योक नदी के पश्चिम की ओर है। उसको लेकर वे मानते हैं कि वह हमारी एरिया में है। हम जो एलएसी में हमारे इलाके में कुछ और निर्माण कार्य कर रहे हैं, उससे उन्हें संदेह हुआ कि हम वहां पर आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं। उनका कहना है कि यह उनके क्षेत्र में आता है। इसलिए उन्होंने उस पर आपत्ति दर्ज की। लेकिन हमारी कोशिश यह है, हमारा इरादा यह है कि हमें जो निर्माण कार्य हमारी सीमा के अंतर्गत चाहिए उसे हम जरूर पूरा करते रहेंगे। इसमें कोई रूकावट नहीं आएगी।
मतलब आपका कहना है कि एलएसी पर ये जो कुछ तनाव हो रहा है, विवाद हो रहा है इससे हमारे इलाके में निर्माण कार्यों को पूरा करने में कोई समस्या नहीं होगी, काम जारी रहेगा…?
– कोई समस्या नहीं होगी, जो काम चल रहा है वह पूरा होकर रहेगा।
क्या गलवान घाटी में हमारा पक्ष कमजोर है ? आखिर वहां अक्सर संघर्ष की नौबत क्यों आ रही है?
– लद्दाख की गलवान घाटी में हुए संघर्ष के पीछे एक कारण चीन की तरफ इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास हो सकता है, जिससे इन इलाकों में गश्ती बढ़ी है। इसी तरह भारत की तरफ हुए विकास से भारतीय सेना की पेट्रोलिंग भी बढ़ी है। असल में लगातार हो रहे संघर्षों का मतलब यह नहीं है कि एक पक्ष कमजोर है या भारत-चीन के बीच द्विपक्षीय संबंध बहुत खराब हैं।
लेकिन ये यह जरूर बताते हैं कि भारतीय सेना लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल (एलएसी) की निगरानी बेहतर ढंग से कर सकती है और नतीजतन अब ज्यादा पीएलए (चीनी सेना) गश्ती दल मिल रहे हैं और उनके एलएसी पार करने की कोशिशों पर संघर्ष हो रहे हैं।
बहुत सारे लोग एलएसी पर हमारी सेना के पराक्रम पर सवाल खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं!
– देश को इस समय हमारी सेना का पूरा समर्थन करना चाहिए और जमीनी स्थिति को संभालने की जिम्मेदारी पूरी तरह से सैन्य कमांडरों के पेशेवर विवेक पर छोड़ देना चाहिए। भारतीय सेना पूरे साहस के साथ हमारी सीमाओं की रक्षा कर रही है। अफवाहों के आधार पर सैन्य कमांडरों के पेशेवर विवेक पर शंका करने से हमें बचना चाहिए। यह कहना कि भारतीय सेना चीनी अतिक्रमण का विरोध नहीं कर रही है, जमीनी तथ्यों से गलत साबित हो रहा है। संख्या में कम होने के बावजूद जिस तरह से गलवान घाटी में हमारे जवान क्षेत्रीय अखंडता सुनिश्चित करने के लिए लड़े हैं, वह बताता है कि भारतीय सेना अपना काम अच्छे से कर रही है।
इस समय हमारा ध्यान समान शर्तों पर डिसइंगेजमेंट सुनिश्चित करने पर होना चाहिए। समस्या के समाधान के लिए सेना, कूटनीति और सरकार के स्तर पर प्रयास हो रहे हैं। उम्मीद है कि चीनी सेना उसी जगह वापस चली जाएगी, जहां 20 अप्रैल को थी। फिर भारत-चीन में असरकारी ढंग से समझौते पर दस्तखत करने के प्रयास होने चाहिए, ताकि एलएसी पर आगे ऐसी घटनाएं न हों।
कुछ लोगों के मन में शंका है कि जब दोनों तरफ से गोलियां नहीं चलीं तो इतनी मौतें कैसे हुईं ?
– इसे समझने के लिए हमे एलएसी को लेकर दोनों पक्षों के बीच हुए समझौतों को देखना होगा। समझौते के मुताबिक, कोई भी पक्ष दूसरे पक्ष की तरफ हथियार नहीं तानेगा। चूंकि गोलियां चलाने का कोई विकल्प नहीं है, इसलिए एक-दूसरे को रोकने के लिए दूसरे तरीके अपनाए गए। उदाहरण के लिए गश्ती दल को घुसपैठ करने से रोकने के लिए शारीरिक बल का इस्तेमाल। पैंगिंग त्सो में 2017 में दोनों पक्षों ने पत्थरबाजी की मदद ली। इस साल मई के पहले हफ्ते में हुई घटनाओं में पत्थरों के साथ लाठी, छड़ी आदि इस्तेमाल हुईं। 15 जून को भी यही हुआ। गलवान घाटी में हुई मौतों के पीछे पत्थर और अन्य आदिम हथियारों के अलावा दो और कारक रहे। पहला, जब घटना हुई तब अंधेरा था। दूसरा, गलवान नदी में पानी का तापमान शून्य से नीचे था। इसलिए कुछ मौतें सैनिकों के नदीं में गिरने से हुई होंगी। हमें यह समझना चाहिए कि चीनी पक्ष में भी कई मौतें हुई हैं और हमारे सैनिक चीनियों को उनके इलाके में वापस भेजने के लिए बहादुरी से लड़े। इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए इन घटनाओं का विश्लेषण करना चाहिए और अगर जरूरत पड़े तो परिचालन संबंधी प्रक्रियाओं में बदलाव लाना चाहिए।