लंदन में हिंदी के नामचीन साहित्यकार तेजेन्द्र शर्मा से News1इंडिया के राजनीतिक संपादक संजय सिंह से खास बातचीत

प्रश्नः- आप एक प्रवासी साहित्यकार हैं आपको क्या लगता है देश से बाहर हिन्दी साहित्य को कितना स्थान मिल पता है ?

उत्तरः मुझे आपके सवाल से आपत्ति है। मैं केवल साहित्यकार हूं… आप और भारत के आलोचक, संपादक, प्रकाशक मुझे प्रवासी साहित्यकार मानते हैं। साहित्य में ये एक नया ख़ांचा बनाया गया है। पहले से बहुत से आरक्षण कोटे साहित्य में चल रहे थे – नारी लेखन, दलित लेखन, आदिवासी लेखन, पहाड़ी लेखन, आदि आदि। ना जाने एक और कम्पार्टमेण्ट की क्यों आवश्यक्ता आन पड़ी। भारत छोड़ने से पहले मेरे तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके थे, और तीनों ही वाणी प्रकाशन से। मेरे प्रवासी बनते ही मेरा साहित्य भी प्रवासी साहित्य हो गया; जबकि वो साहित्य मैनें तब लिखा था जब में मुंबई में रहता था और भारत का नागरिक था।
आपके सवाल का दूसरा हिस्सा ख़ासा कम्पलेक्स है। प्रवासी साहित्यकार होने के कारण हमें कभी भी मुख्यधारा का हिस्सा नहीं समझा जाता। जब कभी कोई महत्वपूर्ण कहानीकारों की सूचि बनाता है तो देश के बाहर नज़र उठा कर नहीं देखता…. मुझे केन्द्रीय हिन्दी संस्थान आगरा, यूपी हिन्दी संस्थान,  हरियाणा साहित्य अकादमी (पंचकूला) एवं स्पन्दन संस्था (भोपाल) के  सम्मान मिल चुके हैं, मगर चारों एक सम्मान प्रवासी साहित्यकार के तौर पर हैं; साहित्यकार के तौर पर नहीं। यानि कि भारत में ही हमारे साहित्य को अलग दृष्टे से देखा जाता है तो भला विदेश में क्या पूछ होगी। वहीं यह भी सच है कि हमें एक लाभ भी है कि विश्वविद्यालयों में प्रवासी साहित्य के अलग कोर्स शुरू हुए हैं और हमारे लिखे साहित्य को विद्यार्थियों तक पहुंचने का मौक़ा मिला है। हम चाहे कुछ भी कह लें… अब प्रवासी का ठप्पा हमारे नाम के साथ लग ही गया है।… फिर भी संघर्ष जारी है…

प्रश्न :- क्या लिखने पढने वाले समाज या बुद्धिजीवी वर्ग को किसी ख़ास राजनीतिक विचारधारा के समर्थन या विरोध में खुलकर आना आज ज़रूरी लगता है ?

उत्तर : भाई संजय जी,  हिन्दी साहित्य का जितना नुक़्सान विचारधारा के दबाव ने किया है उतना तो कोई साहित्य का घोषित दुश्मन भी नहीं करेगा। लगभग तीन दशकों तक हिन्दी साहित्य एक ही विचारधारा के दबाव में एकरस साहित्य छापता रहा। उद्देशय यही था कि नामवर सिंह, राजेन्द्र यादव, मैनेजर पाण्डेय, परमानन्द श्रीवास्तव जैसे आलोचकों को अपने लेखन से प्रभावित करके कोई सम्मान प्राप्त किया जा सके। मेरा मानना है कि साहित्य को आम आदमी के पक्ष में खड़ा होना पड़ेगा। हिन्दी साहित्यकार को हारे हुए इन्सान का दर्द समझने के लिये किसी विचारधारा का मोहताज नहीं होना चाहिये। यदि लेखक संवेदनशील है तो उसकी क़लम स्वयंमेव ही शोषित के दर्द को अपने पन्नों पर दिखाएगी और उसकी लड़ाई लड़ती दिखाई देगी। हिन्दी में दक्षिणपन्थ का साहित्य जैसी कोई वस्तु तो कहीं है नहीं। पहले साहित्य होता था और फिर आ गया वामपन्थी साहित्य। उनके मठाधीशों का कहना है कि या तो आप हमारे साथ हैं वर्ना आर.एस.एस. के साथ हैं। क्यों भाई मैं इन दो धुरों के कहीं बीच अलग से क्यों नहीं हो सकता। क्या आम आदमी केवल चीन और रूस में होता है ? मुझे उस आम आदमी का दर्द समझने के लिये कार्ल मार्क्स को पढ़ना क्यों ज़रूरी है। यदि वामपन्थी अपने ख़ुदा के लिये देश के बाहर देखता है तो वह भारतीय आम आदमी के दर्द को समझ कैसे पाएगा।

प्रश्नः – भारत में अचानक अंग्रेज़ी लिखने वाले युवा लेखकों की बाढ़ आ गई है। वे खूब सफल भी हैं। उसके उलट हिंदी में लेखक और पाठक घूमफिरकर एक ही हैं। मोटे तौर पर कुछ ही लोग हैं जो एक-दूसरे का लिखा पढ़ते हैं और आपस में समीक्षाएं करते हैं। यह स्थिति क्यों है ?

उत्तर : इसकी प्रमुख वजह है एक ख़ास विचारधारा का दबदबा होना। इस विचारधारा के बारे में मैंने ऊपर बात की है।  करीब 15 से 20 साल तक हिंदी साहित्य उसी विशेष विचारधारा के दबाव में लिखा गया। इसकी वजह से हिंदी में पॉपुलर लिटरेचर और साहित्य में खाई पैदा हो गई है। अंग्रेज़ी में जो बेस्टसेलर है वह साहित्य हो सकता है लेकिन बेस्टसेलर हिंदी में लुगदी साहित्य कहलाता है। ये एक बहुत बड़ी समस्या है। कोई नहीं सोचता आखिर गुलशन नंदा में ऐसा क्या था जो कि दो जनरेशन उसके प्रभाव में रही। गुनाहों के देवता में आखिर ऐसा क्या है जो उसके 40 संस्करण निकाले गए। हम उसे साहित्य नहीं कहते। हमारे यहां तो शैलेंद्र जैसे अदभुत कवि को साहित्यकार नहीं माना जाता। दरअसल आलोचकों ने हिंदी साहित्य को पाठकों से दूर कर दिया। हिंदी साहित्य की दिक्कत यह है कि यह पाठकों के लिए नहीं बल्कि आलोचकों के लिए लिखा जा रहा है। हमारे यहां 500 प्रतियों के सर्कुलेशन वाली पत्रिकाएं बड़ी शान से लिखती हैं कि हमें अप्रकाशित रचनाएं ही भेजिए। वहीं अगर कोई लेखक किसी व्यावसायिक पत्रिका में लिख दे तो उसे बिरादरी से खारिज कर दिया जाता है। हिंदी साहित्य ज़बरदस्त ख़ेमेबाजी का शिकार है। अब आते हैं आपके प्रश्न के पहले हिस्से पर। अंग्रेज़ी के लेखक सफल हैं क्योंकि उन्होंने बहुत तरीके से अपने पाठकों को लक्ष्य किया है। वे पूरी तैयारी से लगभग किसी उत्पाद की मार्केटिंग वाली शैली में अपनी किताब को बाजार में लाते हैं। उसके आने से पहले ही उसकी इतनी चर्चा हो जाती है कि उसे तो बिकना ही है।

प्रश्नः – इंग्लैंड जाने के बाद आपके जीवन में आए महत्वपूर्ण बदलावों पर प्रकाश डालिए ?

उत्तर : लंदन में बसने के बाद मेरे जीवन में और लेखन में क्ई बदलाव आए। बच्चों की पढ़ाई पूरी हो गई। बेटी वापिस मुंबई चली गई वहां टेलिविज़न में एक्टिंग कर रही है। बेटे का विवाह हो गया वह अपनी डेंटिस्ट पत्नी के साथ अलग रहता है। मैं अब अकेला रहता हूं और मेरा अधिकतर समय रेलवे की नौकरी और लेखन में ख़र्च होता है। फ़ेसबुक और व्हाट्सएप जैसे सोशल मीडिया साइट मुझे पूरी दुनियां से जोड़े रखते हैं। भारत की गतिविधियों से जुड़ा रहता हूं। हर साल जनवरी में भारत आता हूं और बहुत से महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों के साथ संवाद बनाता हूं। अब मेरे लेखन के थीम अधिक वैश्विक हो गये हैं। मेरी नवीनतम कहानियां जैसे कि “शवयात्रा” और संदिग्ध  पूरी तरह से अनछुए और अनूठे थीमों पर आधारित हैं। ब्रिटेन में बसने के बाद ही मेरे लिये क़ब्र का मुनाफ़ा, ये ज़मीन भुरभुरी क्यों है, कल फिर आना, इंतज़ाम, पापा की सज़ा, छूता फिसलता जीवन और कोख का किराया, ज़िन्दगी और मौत के बीच की चुप्पी, ज़मीन भुरभुरी क्यों है, जैसी कहानियां लिख पाना संभव हुआ।
यहां आने के बाद कथा यू.के. की स्थापना की। ब्रिटेन की संसद के हाउस ऑफ़ कॉमन्स एवं हाउस ऑफ़लॉर्ड्स में हिंदी कार्यक्रमों के आयोजन किये। कथा गोष्ठियों, कवि सम्मलेनों एवं कार्यशालाओं का आयोजन किया। भारत के बहुत से शहरों में प्रवासी सम्मेलनों का आयोजन किया। कुछ विशेषांक संपादित किये और सबसे बड़ी बात… अपना कहानी लेखन जारी रखा…. हां यह ख़्याल रखता हूं कि जब तक कहने को कुछ नया ना हो तब तक क़लम नहीं उठाता।

प्रश्नः- आपके साहित्य लेखन की कर्मभूमि भारत तथा इंग्लैण्ड दोनों रही हैं; दोनों अलग-अलग परिवेशों को आप अपने साहित्य में कैसे समाविष्ट करते हैं?

उत्तर : संजय भाई, मेरा मामला अन्य हिन्दी लेखकों से बिल्कुल ही भिन्न है। मैं कभी भी पूरी तरह से केवल इंडियन नहीं रहा क्योंकि मैं एक एअर इंडियन था। एअर इंडिया की नौकरी की वजह से मेरा परिवेश शुरू सेही अन्य लेखकों की तुलना में कुछ अलग था। मेरे लिये मज़दूर और किसान से कहीं अधिक विमान क़रीबी मामला था। इसलिये मेरी कहानियों के विषय शुरू से ही कुछ अलग किस्म के थे। ‘उड़ान’ शायद पहली हिन्दी कहानी थी जो किसी एअर होस्टेस के जीवन पर आधारित थी। यह कहानी मुंबई से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘श्रीवर्षा’ में प्रकाशित हुई थी और इस कहानी को देवेश ठाकुर ने वर्ष 1982 की श्रेष्ठ कहानियों में शामिल किया था।
इसी तरह विमान दुर्घटना को लेकर लिखी गई मेरी कहानी ‘काला सागर’ भी अपने विषय पर पहली कहानी है। कहानी विमान द्रर्घटना के बाद शुरू होती है और दर्शाती है कि किस तरह मनुष्य अर्थ द्वारा संचालित हो रहा है और रिश्ते खोखले होते जा रहे हैं। ‘ढिबरी टाईट’ की पृष्ठभूमि कुवैत है तो ‘देह की क़ीमत’ जापान में एक ग़ैरकानूनी लाश की पड़ताल करती है। मैं भारतीय समस्याओं को भी थोड़ा दूर की दृष्टि से देख पाता था… जज़बाती नहीं होता था।
वहीं यह भी सच है कि  मैं जब ब्रिटेन में बसने के लिये आ गया तो मेरा अनुभव क्षेत्र और भी विस्तृत हो गया। यहां के जीवन का संघर्ष, अस्मिता का संकट, पीढ़ियों में तनाव, और एक नयी संस्कृति से आमाना सामना… ज़ाहिर है कि इन सब का  असर मेरे लेखन पर होना ही था। मगर मैनें जब तक ब्रिटेन  के समाज को समझ नहीं लिया… अपना नहीं लिया … तब तक उसपर कोई कहानी नहीं लिखी।  एक एअरलाइन क्रू की नज़र से लंदन को देखना और एक ब्रिटिश नागरिक की नज़र से देखना  पूरी तरह से भिन्न अनुभव हैं। निर्मल वर्मा प्रवासी जीवन को एक बाहरी व्यक्ति की तरह देखते हैं और उस पर अपनी कहानी केन्द्रित करते हैं। मैं अपने आपको उस समाज का हिस्सा महसूस करते हुए अपनी कहानी का तानाबाना बुनता हूं।

प्रश्नः-  हाल ही में आपका नया कविता संग्रह “टेम्स नदी के तट से” प्रकाशित हो कर आया है। आप ग़ज़लें भी लिखते हैं। वैसे लेखन की कौन सी विधा में आप ख़ुद को सहज महसूस करते हैं ?

उत्तर : संजय आपने बिल्कुल ठीक कहा कि मेरा नया कविता संग्रह प्रलेक प्रकाशन, मुंबई से प्रकाशित हो कर आया है। मैं ग़ज़लें भी लिखने का प्रयास करता हूं मगर मुझे ग़ज़ल की तकनीक में महारथ हासिल नहीं है। और सच तो यह है कि मेरा व्यक्तित्व एक कवि या शायर जैसा नहीं है।   मैं अपने आपको मूलतः कहानीकार ही मानता हूं,और मैं इस बात में कतई विश्वास नहीं रखता कि कहानीकार को संपूर्ण लेखक बनने के लिये उपन्यास लिखना आवश्यक है। कहानी उपन्यास का सारांश नहीं होता।… अपने आप में एक संपूर्ण विधा है… मैं एक कहानीकार की तरह सोचता हूं। कविता आप केवल प्रतिभा से लिख सकते हैं मगर कहानी लिखने के लिये प्रतिभा के साथ – साथ मेहनत की ज़रूरत होती है। कहानी दरअसल हर विधा की मां होती है। क्योंकि साहित्यकार कुछ कहना चाहता है इसलिये वह क़लम उठाता है। वही उसकी कहानी होती है फिर विधा चाहे कविता हो, कहानी हो, नाटक हो, या उपन्यास… कहता वह कहानी ही है। अंग्रेज़ी औऱ हिन्दी के बहुत से कहानीकारों की कहानियां पढ़ कर अपनी ज़मीन पुख़्ता की है। बहुत से कहानीकारों को तूफ़ान की तरह आते देखा है और फिर ग़ायब होते भी देखा है। एक अच्छे कहानीकार को गुणवत्ता के साथ- साथ निरंतरता का भी ध्यान रखना चाहिये। वैसे केवल लिखने के लिये भी नहीं लिखना चाहिये। जब तक कहने के लिये कुछ ख़ास ना हो तब तक क़लम को कष्ट ना ही दें तो अच्छा है।

प्रश्नः– आप लगातार हिन्दी सिनेमा से जुड़े वैबिनारों में हिस्सा ले रहे हैं। आपको हिंदी सिनेमा से बेहद लगाव रहा है… हिन्दी सिनेमा का कौन सा काल आपको प्रिय है औऱ क्यों?

उत्तर : मुझे लगता है कि 1949 से 1971 तक का काल हिन्दी सिनेमा के लिये ‘गोल्डन पीरियड’ कहा जा सकता है। इस काल में गुरूदत्त, बिमलरॉय, राज कपूर, बी. आर. चोपड़ा, शांताराम, महबूब ख़ान, के. आसिफ़, कमाल अमरोही, चेतन आनन्द, देव आनन्द, सुनील दत्त, ऋषिकेश मुखर्जी आदि ने बेहतरीन फ़िल्में बनाईं। इसी पीरियड में दिलीप कुमार, राज कपूर, देव आनन्द, अशोक कुमार, मोतीलाल, राज कुमार, सुनील दत्त, धर्मेन्द्र, बलराज साहनी, नूतन, नरगिस, मीना कुमारी, मधुबाला, वहीदा रहमान, वैजयन्ती माला, महमूद, जॉनीवॉकर, ललिता पवार, के. एन. सिंह और प्राण जैसे कलाकारों ने ज़बरदस्त अदाकारी का प्रदर्शन किया। शंकर जयकिशन,नौशाद, सचिन देव बर्मन, मदन मोहन, ओ.पी. नैय्यर, सी. रामचन्द्र, रौशन, जयदेव, ख़्य्याम आदि ने अमर संगीत दिया तो वहीं शैलेन्द्र, साहिर, शकील, मजरूह, कैफ़ी आज़मी, राजा मेंहदी अली ख़ान, भरत व्यास, आनन्द बख़्शी एवं इंदीवर ने साहित्यिक फ़िल्मी गीतों की एक नई विधा पैदा कर दी। लता मंगेश्कर, मुहम्मद रफ़ी, मुकेश, मन्नाडे, आशा भोंसले, तलत महमूद और किशोर कुमार की आवाज़ का सुनहरा जादू भी इसी काल का हिस्सा है।  जब इस तरह सृजनात्मकता का विस्फोट-सा हो रहा हो उस काल को हिन्दी सिनेमा का गोल्डन पीरियड मानना ही पड़ेगा।

प्रश्नः – आपने साहित्य अकादमी में गीतकार शैलेन्द्र पर एक लम्बा लेक्चर दिया था। आप इस विषय पर पूरे विश्व में पॉवर पाइण्ट प्रोग्राम भी करते रहे हैं। शैलेन्द्र की गीतों में आपको क्या विशेषता दिखाई देती है?

उत्तर : शैलेन्द्र की ख़ासियत यह है कि वह आम आदमी के दर्द का लेखक है। वह सरल शब्दों में बड़ी बात कहता है। शंकर जयकिशन गीत की धुन पहले बना दिया करते थे। अब सोचा जाए कि धुन बन चुकी है। फ़िल्म की कहानी, सिचुएशन, कलाकार, धुन आदि का ख़्याल रखते हुए शैलेन्द्र को सृजन करना होता था और वह इतनी सीमाओं में रहते हुए भी अपने दिल की बात उन गीतों में डाल दिया करते थे। यानि कि उनका गीत फ़िल्म की स्थिति को तो समझाता ही था उसके साथ-साथ कहानी को आगे बढ़ाता हुआ उनकी अपनी फ़िलोसॉफ़ी भी समझा जाता है। शैलेन्द्र ने शंकर जयकिशन के अलावा सचिन देव बर्मन, सलिल चौधरी, रौशन और सी. रामचन्द्र के लिये भी गीत लिखे। शैलेन्द्र पर नेहरू के सपनों का ख़ासा असर था और वे मानते थे कि आने वाली दुनिया में सबके सर पर ताज होगा। राजकपूर उन्हें हमेशा कविराज कह कर बुलाते थे। वैसे आज के बाएं हत्था (वामपंथी) लोगों के लिये एक संदेश अपने एक गीत में शैलेन्द्र दे गये हैं – कुछ लोग जो ज़्यादा जानते हैं, इन्सान को कम पहचानते हैं। मेरा मानना है कि शैलेन्द्र के गीतों को भारतीय स्कूलों और विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रम का हिस्सा बनना चाहिये।

प्रश्नः- आपको भारत के राष्ट्रपति, और ब्रिटेन की महारानी ने हिन्दी साहित्य के लिये सम्मानित किया है। टाइम्स नाऊ एवं आई.सी.आई.सी.आई. ने भी आपकोएन.आर.आई. ऑफ़ दि ईयर के पुरस्कार से सम्मानित किया है। क्या इतने महत्वपूर्ण सम्मान एवं पुरस्कार आप पर अतिरिक्त ज़िम्मेदारी का बोझ डालते हैं?

उत्तरः संजय, किसी भी लेखक या कलाकार को जब जब कोई सम्मान मिलता है तो आमतौर पर उसे लेखक या कलाकार की निजी उपलब्धि मान लिया जाता है। मगर पिछले कुछ दिनों से कुछ ऐसा हो रहा है कि मैं केवल तेजेन्द्र शर्मा ना रहकर हिन्दी साहित्य के वैश्विक प्रतिनिधि के रूप में अपने व्यक्तित्व को महसूस करने लगा हूं। जब ब्रिटेन की महारानी ने मुझे हिन्दी साहित्य की सेवा के लिये एम.बी.ई. के ख़िताब से नवाज़ा तब भी यही महसूस हुआ था कि यह सम्मान हिन्दी साहित्य का है कि अब उसे वैश्विक स्तर पर आंका जा रहा है। उससे एक क़दम आगे की भावनाएं आज महसूस कर रहा हूं जब एक सौ से अधिक देशों के तीन करोड़ भारतीयों में से एक हिन्दी लेखक को आर्ट और कल्चर के लिये सम्मानित करने के लिये चुना गया है तो यह ग़ौर करने लायक बात है कि एक अंग्रेज़ी का समाचारपत्र, जिसमें हिन्दी साहित्य से जुड़ी ख़बर तक दिखाई नहीं देती, आज हिन्दी के एक कहानीकार को वैश्विक स्तर पर सम्मानित करने योग्य मान रहा है। जब जब मैं सम्मानित हुआ हूं, मैं अपनी दिवंगत पत्नी इन्दु और पिता श्री नन्द गोपाल मोहला को याद करता हूं जिनके कारण मैं लेखन से जुड़ा। और हिन्दी भाषा के हर छोटे बड़े लेखक को बताना चाहूंगा कि यह सम्मान हम सबका है… इसे अपना सम्मान मानिये।

प्रश्नः – आप प्रवासी लेखन का क्‍याभवि‍ष्‍य देखते हैं ?

उत्तर: प्रवासी लेखन (अमरीका, कनाडा, ब्रिटेन, युरोप एवं खाड़ी देशों में) पहली पीढ़ी के प्रवासियों का लेखन है। ब्रिटेन में लेखकों की एवरेज आयु साठ साल से अधिक है। कुछ अस्सी के हो गये हैं तो बहुत से सत्तर से ऊपर। अभी तक विदेशों में हिन्दी का एक भी लेखक ऐसा नहीं है जिसका जन्म वहां हुआ हो। मॉरीशस,फ़ीजी, सुरीनाम आदि में युवा पीढ़ियां नाममात्र का हिन्दी साहित्य लिख रही हैं। त्रिनिदाद में जब मुझे जब एक अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन में बोलना था तो मुझे विशेष तौर पर प्रार्थना की गई कि मैं अंग्रेज़ी में बोलूं ताकि वहां के स्थानीय युवा भी बात समझ सकें।

प्रवासी साहित्य निर्भर करता है प्रवासन पर। जैसे जैसे भारतीय विदेश में आकर बसेंगे वैसा ही बनेगा प्रवासी साहित्य। आजकल भारत में बच्चे हिन्दी कहां पढ़ते हैं? भारत में ही हिन्दी भाषा के मुक़ाबले बोली बनती जा रही है। मैं जब भारत जा कर वहां कि युवा पीढ़ी से हिन्दी में बात करने का प्रयास करता हूं, जवाब अंग्रेज़ी में मिलता है।