बेरोजगारी का आलम यह है कि इंसान सोचता है, बस दाल-रोटी का पैसा जेब में आ जाए। लेकिन अब तो दाल खाने के लिए भी सोचना पड़ता है। आम आदमी 100 रुपए की दाल खाए या पैसों को भविष्य के लिए बचाए।
लॉकडाउन के दौरान मुनाफ़ाखोरी को रोकने के लिए सरकार ने सख्त कदम भी उठाए थे लेकिन बिचौलियों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। दाल की किल्लत होने के कारण फुटकर व्यापारी ग्राहकों को महँगे दामों पर दालें बेच रहे है। महँगी दालों का ठीकरा थोक व्यापारियों पर फोड़ा जा रहा है।
सरकार से जब सवाल पूछा जाए तो जनता को गोलमोल जवाब मिलता है। लेकिन मुनाफ़ाखोरी की बात को नकार देती है। इससे मुनाफ़ाखोरो का हौसला ओर बढ़ जाता है। सरकार बताती है कि माँग से ज्यादा उत्पादन न होने के कारण दालों के दामों में उछाल आता है और इस बार कोरोनावायरस की वजह से आयात में भी कमी आई है। यही कारण है कि इस बार दालें 130 रुपए तक पहुँच चुकी है। सरकार चाहे कितने भी तर्क दे लेकिन हकीकत यही है कि मुनाफ़ाखोरी से ही दामों में उछाल आता है। जो हर वर्ष अक्टूबर के महीने में देखने को मिलता है।
आम आदमी को सरकार से उम्मीद रहती है कि सरकार कुछ करेगी। लेकिन सरकार के पास आम आदमी को दिलासा देने के अलावा कुछ भी नहीं है। सरकार की नीतियों से ही खाद्यान्नों में महंगाई बढ़ती जा रही है। सरकार को मालूम है कि मुनाफ़ाखोरी बढ़ रही है तो क्यों कोई ऐक्शन इस पर नहीं लेती। क्या सरकार की मिलीभगत से ऐसा हो रहा है! लेकिन कुछ भी हो इस दौर में सरकार दालों के दाम बढ़ाकर आम आदमी के जले पर नमक छिड़कने का काम कर रही है।
अब तो सरकारी महकमों और मंत्रियों से झूठा आश्वासन लेना भी बेमानी है कि महंगाई पर काबू पा लिया जायेगा। सरकार के पास सिर्फ एक रटा रटाया जवाब है कि सरकार इस पर काम कर रही है और जल्द इस पर काबू पा लेंगे। लेकिन सरकार की ओर से दालों की कीमतों में उछाल के जो भी स्पष्टीकरण दिए जा रहे हो, वे कतई विश्वसनीय नहीं है। क्योंकि सरकार भी इसको काबू में रखती तो आज हर साल की भाँति दालों के दामों में बढ़ोतरी नहीं होती