Acharya Satyendra Das: अयोध्या में राम मंदिर के मुख्य पुजारी आचार्य सत्येंद्र दास का बुधवार को लखनऊ के पीजीआई अस्पताल में निधन हो गया। वह 3 फरवरी से ब्रेन हैमरेज के कारण इलाजरत थे। सत्येंद्र दास ने मात्र 20 वर्ष की उम्र में राम मंदिर में पूजा-अर्चना शुरू की थी और 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के दौरान भी वे मंदिर के पुजारी थे। इस दौरान एक महत्वपूर्ण घटना घटी जिसे आज भी याद किया जाता है।
क्या थी 1949 की घटना
यह घटना 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद की है लेकिन इसे समझने के लिए 1949 की घटना को जानना आवश्यक है। 22-23 दिसंबर 1949 की रात विवादित ढांचे के भीतर रामलला की मूर्ति रखी गई थी जिससे पूरे देश में इसकी चर्चा फैल गई और अयोध्या में पूजा-अर्चना का सिलसिला शुरू हो गया। इसके बाद 23 दिसंबर 1949 को पुलिस ने मस्जिद में मूर्ति रखने का मुकदमा दर्ज किया जिसके परिणामस्वरूप 29 दिसंबर 1949 को वहां ताला लगा दिया गया।
1986 में इस ताले को खोला गया और 6 दिसंबर 1992 तक यह मूर्ति विवादित स्थल पर बनी रही। हालांकि बाबरी मस्जिद विध्वंस के दौरान यह मूर्ति गायब हो गई। यह रामलला की मूल मूर्ति नहीं थी बल्कि 22 दिसंबर 1949 की रात रखी गई मूर्ति थी।
क्या थी मूर्ति भेजने की घटना
वरिष्ठ पत्रकार हेमंत शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘युद्ध में अयोध्या‘ में उल्लेख किया है कि जब बाबरी ढांचा गिरा तब आचार्य सत्येंद्र दास ने इस मूर्ति को बाहर निकाला जिसके बाद वह गायब हो गई। उस समय कारसेवकों के बीच भारी अफरातफरी मची हुई थी, एक ओर केंद्र सरकार की संभावित कार्रवाई का भय था और दूसरी ओर अस्थायी मंदिर के निर्माण की जल्दबाजी। बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद अयोध्या में कर्फ्यू लगा दिया गया था और बाजार पूरी तरह बंद थे।
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इसी दौरान अयोध्या के राजा ने अपने घर से रामलला की मूर्तियां भेजीं। ये वही मूर्तियां थीं जिन्हें उनकी दादी ने विशेष रूप से इस उद्देश्य के लिए एक अस्थायी मंदिर में स्थापित कर सुरक्षित रखा था। विध्वंस के बाद इन मूर्तियों को चबूतरे पर स्थापित किया गया। इस घटना के तुरंत बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव ने कैबिनेट बैठक बुलाई और तत्काल प्रभाव से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को पद से बर्खास्त कर दिया।
1992 में बने थे मुख्य पुजारी
आचार्य सत्येंद्र दास (Acharya Satyendra Das) 1992 में राम जन्मभूमि के मुख्य पुजारी बने और उनका कार्यकाल 1 मार्च 1992 से शुरू हुआ। उन्होंने अपने साथ चार सहायक पुजारियों की एक टीम बनाई ताकि पूजा-अर्चना सुचारू रूप से संपन्न हो सके। मुख्य पुजारी बनने के समय उन्हें मात्र 100 रुपये मासिक पारिश्रमिक मिलता था। उनके समर्पण, सेवा और योगदान को हमेशा याद रखा जाएगा। अयोध्या में राम मंदिर के इतिहास में उनकी भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही और उनके प्रयासों का स्मरण सदैव किया जाएगा।