Maa Durga: दुर्गा की मूर्तियों से जुड़ी एक खास परंपरा, जो नारी सम्मान और समाज को जोड़ने का संदेश देती है।भारत के त्योहार सिर्फ पूजा-पाठ तक सीमित नहीं होते, ये हमारी संस्कृति, परंपरा और सामाजिक सोच को भी दर्शाते हैं। इन्हीं में से एक अनोखी परंपरा है मां दुर्गा की प्रतिमा में वेश्यालय की मिट्टी का इस्तेमाल। सुनने में थोड़ा अजीब लग सकता है, लेकिन इस परंपरा के पीछे छिपा संदेश बेहद गहरा और इंसानियत से जुड़ा हुआ है।
दुर्गा पूजा की शुरुआत और मूर्तियों का निर्माण
जैसे-जैसे नवरात्रि और दशहरा नजदीक आते हैं, देशभर में मां दुर्गा की मूर्तियों को बनाने का काम तेजी पकड़ लेता है। कलाकार महीनों पहले से ही मिट्टी की प्रतिमाओं को गढ़ने में जुट जाते हैं। इन मूर्तियों में देवी दुर्गा के सौंदर्य, शक्ति और तेज को दर्शाने की पूरी कोशिश की जाती है। वहीं दूसरी तरफ, स्थानीय लोग भी पूजा की तैयारियों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं। इस दौरान समाज के हर तबके के लोग मिलकर त्योहार की खुशियों को साझा करते हैं।
मां दुर्गा की मूर्तियों में क्यों मिलाई जाती है वेश्यालय की मिट्टी?
इस परंपरा के अनुसार, मां दुर्गा की प्रतिमा तब तक अधूरी मानी जाती है जब तक उसमें वेश्यालय की मिट्टी नहीं मिलाई जाती। यह मिट्टी ‘नपुनसक पाथ’ यानी चार जगहों की मिट्टी का मिश्रण होती है, जिसमें वेश्यालय की मिट्टी प्रमुख होती है। मूर्तिकार खुद वेश्याओं के पास जाकर यह मिट्टी ‘भीख’ में मांगते हैं। यह प्रक्रिया सिर्फ मिट्टी इकट्ठा करने की नहीं, बल्कि एक भावनात्मक और सम्मानजनक जुड़ाव की प्रतीक होती है।
इस परंपरा का भावनात्मक और सामाजिक संदेश
यह परंपरा सिर्फ धार्मिक आस्था नहीं, बल्कि समाज में हाशिए पर रहने वाली महिलाओं के लिए सम्मान और बराबरी का संदेश भी देती है। एक तरफ देवी दुर्गा को ‘शक्ति’ का रूप माना जाता है, वहीं दूसरी ओर उसी मूर्ति में ऐसी मिट्टी का इस्तेमाल होता है, जिसे समाज आमतौर पर तुच्छ समझता है।
इससे यह संदेश जाता है कि हर महिला, चाहे वह किसी भी परिस्थिति में क्यों न हो, सम्मान के लायक है। मूर्तिकारों की यह पहल नारी गरिमा और समाज के प्रत्येक वर्ग को जोड़ने की मिसाल बन जाती है।