Thackeray brothers: महाराष्ट्र की राजनीति में एक बार फिर भावनाओं और सत्ता की रस्साकशी देखने को मिल रही है। शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे और एमएनएस अध्यक्ष राज ठाकरे के बीच लंबे समय से चल रहे मतभेद अब खत्म होते नजर आ रहे हैं। राज ठाकरे ने मराठी अस्मिता और महाराष्ट्र के भविष्य को ध्यान में रखते हुए उद्धव से साथ आने का इशारा किया है। वहीं, उद्धव ठाकरे ने भी झगड़े खत्म करने की बात कही है लेकिन कुछ सख्त शर्तों के साथ। इन दोनों Thackeray brothers का साथ आना न सिर्फ सियासी समीकरणों को बदल सकता है, बल्कि बाल ठाकरे की विरासत को भी एक नई दिशा दे सकता है। क्या वाकई ठाकरे बंधु फिर एक हो पाएंगे?
राज का भावुक बयान और उद्धव की सख्त शर्तें
राज ठाकरे का हालिया बयान, जिसमें उन्होंने उद्धव ठाकरे से गिले-शिकवे भुलाकर महाराष्ट्र के लिए एक साथ आने की बात कही, महाराष्ट्र की राजनीति में भूचाल ले आया है। एक पॉडकास्ट में राज ने कहा, “हमारे बीच का मनमुटाव मराठी अस्मिता के सामने कुछ भी नहीं। साथ आना मुश्किल नहीं है, बस इच्छा चाहिए।” यह सुनते ही सियासी गलियारों में हलचल मच गई।
लेकिन उद्धव ठाकरे ने भी पलटवार करते हुए अपनी ‘शर्तें’ सामने रख दीं। उन्होंने कहा, “जो लोग महाराष्ट्र के खिलाफ काम कर रहे हैं, उन्हें अपने घर बुलाकर खाना नहीं खिलाऊंगा। पहले तय कीजिए कि आप किसके साथ हैं—भाजपा या महाराष्ट्र।” उन्होंने यह भी साफ किया कि पुराने झगड़े भूलने को तैयार हैं, लेकिन दोहरी राजनीति नहीं चलेगी।
राजनीतिक समीकरणों में कितना असर डाल सकता है ठाकरे मिलन?
भले ही एमएनएस की राजनीतिक हैसियत पिछले कुछ वर्षों में कम हुई हो, लेकिन उसका असर आज भी मुंबई की कई सीटों पर दिखता है। 2024 के विधानसभा चुनावों में एमएनएस ने एक भी सीट नहीं जीती, लेकिन कई जगहों पर उसने शिंदे गुट के वोट काटे, जिससे उद्धव की सेना को फायदा मिला।
विशेष रूप से मुंबई की 10 सीटें ऐसी थीं जहां उद्धव की पार्टी बेहद कम अंतर से जीती और एमएनएस तीसरे नंबर पर रही। यानी, अगर दोनों ठाकरे बंधु साथ आते हैं, तो महाराष्ट्र की राजनीति में विपक्ष के लिए बड़ी चुनौती बन सकते हैं। खासकर मुंबई और शहरी मराठी वोटबैंक में यह गठबंधन बम की तरह फूट सकता है।
2006 से शुरू हुआ बिछड़ाव, क्या 2025 में होगा मिलन?
राज ठाकरे ने 2006 में शिवसेना से अलग होकर एमएनएस बनाई थी। तब से दोनों भाइयों के रास्ते जुदा हो गए थे। लेकिन अब जब राज खुद कह रहे हैं कि व्यक्तिगत अहम से ऊपर महाराष्ट्र है, तो सवाल है—क्या उद्धव भी दिल से उन्हें अपनाएंगे?
राजनीतिक जानकार मानते हैं कि यदि यह मेल होता है, तो 2029 तक महाराष्ट्र की राजनीति पूरी तरह से नई शक्ल ले सकती है। लेकिन इसके लिए दोनों को अपने-अपने अहं को त्यागना होगा।
इमोशंस, इतिहास और भविष्य—सिर्फ राजनीति नहीं, दिल का मामला भी है ये!
Thackeray brothers की कहानी सिर्फ राजनीति नहीं, भावनाओं की भी है। चाचा बाला साहेब ठाकरे की विरासत, मराठी गौरव और महाराष्ट्र का भविष्य—सब कुछ इस मेल-मिलाप पर निर्भर करता है।
क्या ये दो भाई Thackeray brothers फिर से एक होंगे? क्या मराठी अस्मिता की खातिर पुराने जख्म भर जाएंगे?
जवाब आने वाले कुछ हफ्तों में सामने होगा—but one thing is sure—this is not just politics, it’s personal!