Dussehra 2025 : जब पूरे भारत में दशहरा के दिन बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक बनकर रावण के पुतले जलाए जाते हैं, तब उत्तर प्रदेश के ग्रेटर नोएडा स्थित एक गांव — बिसरख — एक बिलकुल ही अलग परंपरा निभाता है। यहां रावण को दहन का नहीं, पूजा का पात्र माना जाता है।
बिसरख गांव के लोग रावण को न तो राक्षस मानते हैं और न ही बुराई का प्रतीक, बल्कि उसे विद्वता, तपस्या और ज्ञान का आदर्श मानते हैं। दशहरे के दिन यहां रावण की मूर्ति स्थापित कर हवन और विशेष पूजा की जाती है, लेकिन रावण दहन नहीं होता। यह परंपरा न केवल स्थानीय आस्था का प्रतीक है, बल्कि यह दिखाती है कि भारत में एक ही ऐतिहासिक पात्र को भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से देखा और समझा जाता है।
बिसरख और रावण का पौराणिक रिश्ता
स्थानीय मान्यताओं और ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार, बिसरख गांव का नाम रावण के पिता ‘ऋषि विश्रवा’ के नाम पर पड़ा है। ऐसा कहा जाता है कि त्रेतायुग में यही वह स्थान था, जहां ऋषि विश्रवा का जन्म हुआ था और उन्होंने यहीं एक स्वयंभू शिवलिंग की स्थापना भी की थी।
इतिहासकारों और पुराणों के अनुसार, यही स्थान रावण, कुंभकर्ण, विभीषण और शूर्पणखा का भी जन्मस्थान माना जाता है। शिवपुराण में भी इस भूमि का उल्लेख मिलता है, जिससे इसकी प्राचीनता और पौराणिक महत्व की पुष्टि होती है।
दशहरे पर शोक, दहन नहीं
जहां देशभर में दशहरे के दिन रावण दहन उत्सव के रूप में मनाया जाता है, वहीं बिसरख में यह दिन सम्मान और शोक का अवसर होता है। गांववाले रावण को अपने पूर्वज और पूज्य पुरुष मानते हैं। दशहरे पर एक यज्ञशाला में रावण की मूर्ति रखी जाती है, हवन किया जाता है, लेकिन कहीं भी पुतला नहीं जलाया जाता। स्थानीय लोग कहते हैं— “हम रावण को बुराई नहीं मानते, बल्कि उन्हें अपना ‘बाबा’ मानते हैं। वे एक महान ज्ञानी थे और हम उनकी विद्वता का सम्मान करते हैं।”
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बिसरख की यह अनोखी परंपरा हमें यह याद दिलाती है कि भारत की संस्कृति एकरूपता में नहीं, बल्कि विविधता में रची-बसी है। जहां एक ओर रावण को अहंकार और अधर्म का प्रतीक मानकर उसका दहन होता है, वहीं बिसरख जैसे स्थानों पर उसे ज्ञान, तप और भक्ति के रूप में पूजा जाता है। यह परंपरा यह भी बताती है कि हमारे देश में इतिहास केवल किताबों का विषय नहीं, बल्कि लोक आस्था और परंपराओं में जीवित रहता है।