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Diwali 2025: इस शहर में सबसे पहले मनाई गई थी दिवाली, जानें आतिशबाजी के साथ कब शुरू हुई पटाखा जलाने की परंपरा

राम नगरी अयोध्या में दीपावली का पर्व एक ऐतिहासिक और धार्मिक महत्त्व रखता है, खासकर जब हम इसे प्रभु राम के वनवास से लौटने से जोड़ते हैं।

Vinod by Vinod
October 20, 2025
in Latest News, धर्म, राष्ट्रीय
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नई दिल्ली ऑनलाइन डेस्क। दीयों की कतारें, एलईडी लाइट्स की जगमग, फूलों की खुशबू, रंगोली की सजावट, पटाखों की गूंज, मिठाइयों के डिब्बे और खरीदारी। आज ये सारी चीजें दीपावली की पहचान बन गई हैं। लेकिन क्या आपने कभी सोचा कि जब राम वनवास पूरा कर लौटे, तो अयोध्या की पहली दिवाली कैसी थी। तो दिवाली के खास मौके पर हम आपको अपने इस खास अंक में भारत में सबसे पहले कब और कहां रोशनी का ये पर्व मनाया गया था, बताने जा रहे हैं। हिन्दू ग्रंथों के अनुसार कार्तिक मास की अमावस्या तिथि को दिवाली मनाई जाती है। ऐसे में 20 अक्टूबर 2025 को कार्तिक मास की अमावस्या है। जिसके चलते पूरा देश दिवाली का त्योहार मना रहा है।

पूरे देश में दिवाली पर्व हर्षोउल्लास के साथ मनाया जा रहा है। भगवान श्रीराम की नगरी अयोध्या दुल्हन की तरह सज-धज कर तैयार है। यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ रामनगरी पहुंचकर भगवान श्रीराम की आगवानी की। पीएम नरेंद्र मोदी ने भी इंडियन नेवी के जवानों के साथ दीपावली मनाई। ऐसे में हम आपको बताते हैं कि भारत में सबसे पहले कब दिपावली मनाई गई और कहां पर आतिशबाजी हुई। रामायण में वर्णित कथा के अनुसार, रावण का अंत करने के बाद प्रभु राम ने विभीषण को लंका का राजपाट सौंप दिया, लेकिन उस समय 14 सालों का वनवास खत्म होने में कुछ समय बचा था। फिर प्रभु राम 14 साल के वनवास से लौटने लगे तो वो उस दौरान अपनी किसी न किसी रूप में मदद करने वाले सभी लोगों से मिले।

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वर्णित कथा के अनुसार, इसके बाद प्रभु श्रीराम प्रयागराज में गंगा किनारे स्थित, ऋषि भरद्वाज के आश्रम में उसने मिलने पहुंचे। प्रभु राम के साथ हनुमान जी, लक्ष्मण और माता सीता भी थीं। वहां से उन्होंने हनुमान जी को अपने प्रिय भाई अनुज भरत के पास भेजा। प्रभु राम ने हनुमान जी से भरत को ये कहने को कहा कि वो जल्द ही अयोध्या पहुंच जाएंगे। प्रभु राम को ये भय था कि अगर उनके आगमन की खबर भरत के पास समय से न पहुंची तो वो आत्मदाह कर बैठेगा। प्रभु के कहने पर बजरंगबली अयोध्या निकल गए। अयोध्या में सबसे पहले वो भरत के पास नंदीग्राम गए। जब हनुमान जी पहुंचे तो भरत सो रहे थे। हनुमान जी ने उनको जगाया और प्रभु राम के जल्द ही अयोध्या पहुंच जाने की बात भरत तो बताई।

वर्णित कथा के अनुसार , प्रभु राम के अयोध्या पहुंचने की बात सुनकर भरत खुशी से झूम उठे और वो अयोध्या वासियों से कहने लगे कि मेरे और आपके प्रभु राम आने वाले हैं। जैसे ही अयोध्या वासियों ने ये बात सुनी उनका चेहरा खिल उठा। श्रीराम के अयोध्या लौटने की सूचना मिलते ही वहां की प्रकृति खिल उठी। सूखी हुई सरयू नदी फिर से अविरल बहने लगी। इस का वर्णन रामायण के उत्तरकांड में मिलता है। प्रभु राम के वापस अयोध्या पहुंचने की बात सुनकर अयोध्या वासियों ने दीपकों से पूरे अयोध्या को सजा दिया। देवी-देवता भी ऊपर से पुष्प वर्षा करने लगे। प्रभु जब अयोध्या पहुंचे तो उन्होंने सबको गले लगा लिया। उसके बाद अयोध्या में खुशियां फिर से वापस आ गईं। भगवान श्रीराम को देख अयोध्या भी मुस्कराई थी। कहा जाता है कि त्रेतायुग पर दिवाली मनाई गई, जो बदस्तूर कलगुज में भी जारी है।

दीपावली पर दीया जलाकर खुशियां मनाने के तो पौराणिक कथाओं में भी प्रमाण हैं, लेकिन सवाल ये उठता है कि इससे आतिशबाजी कैसे और कब जुड़ी। कैसे पटाखा जलाने दिवाली का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया। भारत में पटाखों के सबसे पुराने प्रमाण मुगल काल के हैं। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि पटाखे बनाने में इस्तेमाल होने वाली सामग्रियों का ज्ञान भारत में 300 ईसा पूर्व से ही मौजूद था। द हेरिटेज लैब की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पटाखों की शुरुआत सबसे पहले चीन में हुई थी। चीन में आतिशबाजी के लिए बारूद, शोरा , गंधक और चारकोल का इस्तेमाल होता था। इन घटकों को मिलाकर ही पटाखे तैयार किए जाते थे। ऐसे पदार्थ का उल्लेख दूसरी शताब्दी के हान राजवंश के वेई बोयांग द्वारा लिखित ऐतिहासिक डॉक्युमेंट ‘बुक ऑफ़ द किंशिप ऑफ द थ्रीज’ में भी मिलता है। शोरा और गंधक का चीनी ग्रंथों में पहली शताब्दी से पहले ही उल्लेख हो चुका था।

भारत में बारूद तेरहवीं शताब्दी में आया। चीन में मिंग राजवंश के सैन्य अभियानों ने दक्षिण-पूर्व एशिया, पूर्वी भारत और अरब जगत में बारूद का प्रवेश कराया। बारूद से जुड़ी सैन्य रणनीतियां पूर्वी भारतीय जनजातियों से दिल्ली सल्तनत को मिलीं। इस तरह भारत में भी बारूद का इस्तेमाल युद्धों में शुरू हो गया। इस पदार्थ का उपयोग मुख्यतः युद्ध के लिए किया जाता था, लेकिन आतिशबाजी के लिए इसका उपयोग भी चीन से ही सीखा गया था। जब आतिशबाजी भारतीय उत्सवों का हिस्सा बन गई। 15वीं शताब्दी से दिवाली और अन्य त्यौहारों और शादियों में आतिशबाजी का इस्तेमाल होने लगा था। बड़ी संख्या में मुगल चित्रों में इसके प्रमाण मिलते हैं। इनमें भव्य समारोहों में आतिशबाजी का इस्तेमाल दर्शाया गया है। 1633 में मुगल राजकुमार दारा शिकोह (शाहजहां के पुत्र) के विवाह को दर्शाती एक पेंटिंग में ऐसा ही एक प्रमाण है।

 

 

 

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