Cloud Seeding: क्लाउड सीडिंग यानी बादलों को “बीज” देने की प्रक्रिया। इसमें हवाई जहाज या मशीनों की मदद से बहुत छोटे-छोटे कण बादलों में डाले जाते हैं। ये कण बादलों में मौजूद नमी से मिलकर पानी की बूंदें या बर्फ के छोटे कण बना देते हैं, जिससे बारिश होने लगती है। इसे मौसम को थोड़ा नियंत्रित करने की एक आधुनिक और सुरक्षित तकनीक माना जाता है।
भारत में इसकी ज़रूरत क्यों पड़ी?
भारत में हर साल कहीं सूखा तो कहीं बाढ़ की स्थिति बन जाती है। वहीं, दिल्ली जैसे शहरों में सर्दियों के दौरान प्रदूषण और धुंध बड़ी समस्या बन जाते हैं। धूल और धुएं के कारण सांस की बीमारियाँ बढ़ जाती हैं। ऐसे में कृत्रिम बारिश से हवा को साफ करने के लिए क्लाउड सीडिंग एक असरदार तरीका साबित हो सकता है। यही वजह है कि दिल्ली सरकार ने 2025 में इसका पहला परीक्षण शुरू किया है।
कितनी होगी लागत?
क्लाउड सीडिंग की लागत जगह और प्रोजेक्ट के आकार पर निर्भर करती है। छोटे स्तर पर यह 12 लाख से 40 लाख रुपये तक हो सकती है। बड़े स्तर की परियोजनाएँ सालाना 8 करोड़ से 12 करोड़ रुपये तक पहुँच सकती हैं। दिल्ली में 2025 के परीक्षण के लिए 3.21 करोड़ रुपये स्वीकृत किए गए हैं। इसमें पाँच परीक्षण शामिल हैं, जिनमें हर एक की लागत करीब 55 लाख से 1.5 करोड़ रुपये तक है।
यह तकनीक कैसे काम करती है?
हर बादल में नमी होती है, लेकिन कभी-कभी बूंदें इतनी छोटी होती हैं कि वे बारिश नहीं कर पातीं। ऐसे में जब बादलों में सूक्ष्म रसायन डाले जाते हैं, तो ये कण नमी को अपनी ओर खींचते हैं और बड़ी-बड़ी बूंदें बनाते हैं, जो बारिश में बदल जाती हैं। सफलता दर लगभग 10 से 30 प्रतिशत तक होती है।
कौन से रसायन और तकनीकें उपयोग होती हैं?
सबसे आम रसायन सिल्वर आयोडाइड (AgI) है, जो ठंडे बादलों में बर्फ के क्रिस्टल बनाने में मदद करता है। इसके अलावा सोडियम क्लोराइड (नमक) और कैल्शियम क्लोराइड भी उपयोग किए जाते हैं। भारत में हवाई जहाज, रॉकेट और ज़मीनी मशीनों से इनका छिड़काव किया जाता है। दिल्ली में भी हवाई जहाजों से 90 मिनट की उड़ान के दौरान ये रसायन बादलों में छोड़े जाएंगे।
क्या हैं इसके फायदे?
यह तकनीक सूखे के समय फसलों को बचाने, प्रदूषण घटाने और हवा की गुणवत्ता सुधारने में मदद करती है। इसके ज़रिए बाढ़ नियंत्रण और जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याओं से भी कुछ राहत मिल सकती है। वैज्ञानिकों का मानना है कि क्लाउड सीडिंग भविष्य में पर्यावरण संरक्षण का एक प्रभावी उपाय बन सकती है।
क्या हैं जोखिम और सावधानियाँ?
हालाँकि यह तकनीक सुरक्षित मानी जाती है, लेकिन रसायनों का ज़्यादा उपयोग पर्यावरण और जल स्रोतों को नुकसान पहुँचा सकता है। कुछ लोगों को सिल्वर आयोडाइड से एलर्जी भी हो सकती है। इसलिए कम मात्रा में इसका उपयोग और निरंतर निगरानी ज़रूरी है। भारत में आईआईटी कानपुर जैसे संस्थान इस पर अध्ययन कर रहे हैं ताकि इसे और सुरक्षित बनाया जा सके।









