हीरो की भीड़ में खोकर गुमनाम हो जाने के बजाय अक्षय खन्ना और बॉबी देओल ने वक्त रहते अपनी राह बदल ली। दोनों ने समझ लिया कि अगर सिर्फ हीरो बनकर टिकने की ज़िद की, तो करियर का दीया उसी भीड़ में बुझ जाएगा, इसलिए उन्होंने स्टारडम की ऊपरी चमक छोड़कर ऐसे नेगेटिव किरदार चुने, जिनकी धार ने न सिर्फ फिल्मों को बदला, बल्कि बॉक्स ऑफिस पर तगड़ी आंधी भी पैदा कर दी।
बॉबी देओल: रोमांटिक हीरो से ख़ूंखार विलेन तक
90 के दशक में बॉबी देओल का सफर एक टिपिकल स्टार किड की तरह शुरू हुआ – लंबे बाल, स्टाइलिश हीरो, रोमांस और एक्शन का मिक्स। ‘बरसात’, ‘सोल्जर’, ‘बिच्छू’ जैसी फिल्मों ने उन्हें ऊँचा लॉन्च तो दिया, लेकिन 2000 के बाद स्क्रिप्ट की गिरती क्वालिटी और लगातार फ्लॉप फिल्मों ने उन्हें लगभग गुमनामी में धकेल दिया। लंबे वक्त तक उन्हें न तो अच्छी फिल्में मिलीं, न ही कोई मजबूत इमेज।
फिर आया बॉबी देओल का डार्क रीइन्कार्नेशन। ‘आश्रम’ सीरीज़ में बाबा निराला के रूप में उनका खौफनाक, परतदार, चालाक किरदार सामने आया, जिसने साबित किया कि बॉबी सिर्फ “चॉकलेट बॉय” नहीं, बल्कि बेहद खतरनाक एंटी–हीरो भी बन सकते हैं। उनकी खामोश क्रूरता, आँखों में बसी सत्ता की भूख और चेहरे की ठंडी मुस्कान ने वेब स्पेस पर तहलका मचा दिया।
इसके बाद 2023 की ‘एनिमल’ ने उनकी विलेनगिरी को नेशनल फेनोमेना बना दिया। लगभग 900 करोड़ कमाने वाली इस फिल्म में ज़ुबान से कम, नज़रों और बॉडी लैंग्वेज से ज़्यादा हिंसा बोलती है। कम स्क्रीन टाइम के बावजूद जिस intensity से बॉबी देओल का किरदार उभरकर आया, उसने कई दर्शकों के लिए फिल्म का सबसे यादगार चेहरा बना दिया। यही वजह है कि आज हिंदी ही नहीं, साउथ की बड़ी फिल्मों तक में नेगेटिव रोल के लिए सबसे पहले बॉबी देओल का नाम सामने आता है। उन्होंने साबित कर दिया कि जब विलेन वज़नदार हो, तो बॉक्स ऑफिस खुद रास्ता बना लेता है।
अक्षय खन्ना: दिमाग से खेलता खलनायक
अक्षय खन्ना हमेशा से “एक्टर” अधिक और “स्टार” कम रहे। ‘बॉर्डर’, ‘दिल चाहता है’, ‘हमराज’, ‘गांध्वी’ जैसे किरदारों में उनकी परफॉर्मेंस ने ये साफ कर दिया था कि वे फ्रेम में शोर नहीं, ठहराव से असर पैदा करते हैं। लेकिन लीड हीरो के तौर पर लगातार सीमित ऑफर, अनिश्चित गैप्स और स्क्रिप्ट का झुकाव “सेफ स्टारडम” की ओर होने के कारण उनका टैलेंट बहुत लंबे समय तक अंडरयूटिलाइज़्ड रहा।
फिर उन्होंने उन जोन में कदम रखना शुरू किया, जहाँ ग्रे और नेगेटिव शेड्स ज़्यादा स्पेस दे रहे थे – ‘इत्तेफाक’, ‘दृश्यम 2’ जैसे ट्रैक पर आते–आते 2025 उनके करियर का टर्निंग ईयर बन गया। इस साल अक्षय खन्ना ने खलनायकी को शोरगुल से नहीं, दिमागी खेल से परिभाषित किया।
‘छावा’ में औरंगज़ेब का किरदार हो या ‘धुरंधर’ में रहमान डकैत – अक्षय की सबसे बड़ी ताकत उनकी शांत, पढ़ती हुई नज़रें और सधे हुए संवाद हैं। उनकी विलेनगिरी चिल्लाती नहीं, बल्कि प्लॉट के भीतर धीरे–धीरे घुसकर कहानी की रफ़्तार और दर्शक की नब्ज़ दोनों को अपने कब्जे में ले लेती है। उनकी स्क्रीन प्रेज़ेंस इतनी calculated और sharp है कि सीन में मौजूद बाकी कलाकार अपने–आप दो कदम पीछे नज़र आते हैं।
आज स्थिति यह है कि 90 के दशक में जिन दो एक्टर्स को “अधूरे स्टारडम” का टैग दिया गया था, वही अपने दौर की सबसे demand में चलने वाली नेगेटिव स्क्रीन–एनर्जी बन चुके हैं। बॉबी देओल की आग और अक्षय खन्ना की खामोश गहराई – दोनों मिलकर ये साबित कर चुके हैं कि हिंदी सिनेमा में अब हीरो नहीं, किरदार की ताकत बॉक्स ऑफिस तय कर रही है।



