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Muharram : आज से शुरु हुआ मुहर्रम का महीना, जानें क्यों नहीं दी जाती मुहर्रम की बधाई

मुहर्रम से इस्लामी संसार में नया साल शुरू होता है। आज, 17 जुलाई को मुहर्रम का पावन दिन मनाया जाता है। इस्लाम धर्म के अनुयायी मुहर्रम महीने को अत्यधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। मुहर्रम की 10 तारीख को रोज़-ए-आशुरा कहा जाता है, जो विशेष तौर पर यादगार और महत्वपूर्ण दिन माना जाता है।

Gulshan by Gulshan
July 17, 2024
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Muharram : मुहर्रम की 10 तारीख को रोज-ए-आशुरा कहा जाता है क्योंकि इस दिन पैगम्बर मोहम्मद के पोते इमाम हुसैन की शहादत हुई थी। मुहर्रम महीने को गम या शोक के तौर पर मनाया जाता है।

मुहर्रम के महीने को लेकर शिया और सुन्नी समुदाय दोनों की मान्यताएं अलग हैं। शिया समुदाय के अनुयायी को मुहर्रम की 1 से लेकर 9 तारीख तक रोजा रखने की छूट होती है। शिया उलेमा के मुताबिक, मुहर्रम की 10 तारीख, यानी रोज-ए-आशुरा के दिन रोजा रखना हराम होता है। वहीं, सुन्नी समुदाय के लोग मुहर्रम की 9 और 10 तारीख पर रोजा रखते हैं। हालांकि, इसे रोजा रखना मुस्लिम लोगों के लिए फर्ज नहीं है, बल्कि इसे सवाब के तौर पर रखा जाता है।

मुहर्रम के चांद दिखने पर सभी शिया मुस्लिमों के घरों और इमामबाड़ों में मजलिसें शुरू हो जाती हैं। इमाम हुसैन की शहादत के दुख में शिया और कुछ इलाकों में सुन्नी मुस्लिम अलामत मनाते हैं और जुलूस निकालते हैं। यह समारोह शिया समुदाय में दो महीने और आठ दिन तक चलता है। शिया समुदाय के लोग पूरे महीने भर मातम करते हैं और हर जश्न से दूर रहते हैं। वे चमक-धमक की बजाय काले रंग के लिबास पहनते हैं।
यह भी पढ़ें : अब कैलिफोर्निया में नहीं होगा स्पेसएक्स और एक्स का मुख्यालय, इस कानून से नाराज होकर मस्क ने उठाया बड़ा कदमक्या है मुहर्रम की बधाई न देने की वजह?

मुहर्रम महीने की दसवीं तारीख को पैगंबर मोहम्मद के नाती इमाम हुसैन के शहादत हो गई थी। इस दुखद घटना में हर साल अशुरा के दिन ताजिए निकाले जाते हैं, जो कि शोक का प्रतीक है। इसलिए इस महीने को “शोक का महीना” भी कहा जाता है। इस दिन शिया समुदाय मातम मनाता है, जबकि सुन्नी समुदाय रोजा और नमाज के जरिए अपना दुख व्यक्त करता है।

इस महीने के पहले दिन नए साल की शुरुआत पर बधाई देना समझा जाता है, लेकिन अशुरा दिन मोहर्रम की बधाई देना गलत माना जाता है, क्योंकि इससे मातम में डूबे लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंच सकती है।

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Muharram : मुहर्रम की 10 तारीख को रोज-ए-आशुरा कहा जाता है क्योंकि इस दिन पैगम्बर मोहम्मद के पोते इमाम हुसैन की शहादत हुई थी। मुहर्रम महीने को गम या शोक के तौर पर मनाया जाता है।

मुहर्रम के महीने को लेकर शिया और सुन्नी समुदाय दोनों की मान्यताएं अलग हैं। शिया समुदाय के अनुयायी को मुहर्रम की 1 से लेकर 9 तारीख तक रोजा रखने की छूट होती है। शिया उलेमा के मुताबिक, मुहर्रम की 10 तारीख, यानी रोज-ए-आशुरा के दिन रोजा रखना हराम होता है। वहीं, सुन्नी समुदाय के लोग मुहर्रम की 9 और 10 तारीख पर रोजा रखते हैं। हालांकि, इसे रोजा रखना मुस्लिम लोगों के लिए फर्ज नहीं है, बल्कि इसे सवाब के तौर पर रखा जाता है।

मुहर्रम के चांद दिखने पर सभी शिया मुस्लिमों के घरों और इमामबाड़ों में मजलिसें शुरू हो जाती हैं। इमाम हुसैन की शहादत के दुख में शिया और कुछ इलाकों में सुन्नी मुस्लिम अलामत मनाते हैं और जुलूस निकालते हैं। यह समारोह शिया समुदाय में दो महीने और आठ दिन तक चलता है। शिया समुदाय के लोग पूरे महीने भर मातम करते हैं और हर जश्न से दूर रहते हैं। वे चमक-धमक की बजाय काले रंग के लिबास पहनते हैं।
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मुहर्रम महीने की दसवीं तारीख को पैगंबर मोहम्मद के नाती इमाम हुसैन के शहादत हो गई थी। इस दुखद घटना में हर साल अशुरा के दिन ताजिए निकाले जाते हैं, जो कि शोक का प्रतीक है। इसलिए इस महीने को “शोक का महीना” भी कहा जाता है। इस दिन शिया समुदाय मातम मनाता है, जबकि सुन्नी समुदाय रोजा और नमाज के जरिए अपना दुख व्यक्त करता है।

इस महीने के पहले दिन नए साल की शुरुआत पर बधाई देना समझा जाता है, लेकिन अशुरा दिन मोहर्रम की बधाई देना गलत माना जाता है, क्योंकि इससे मातम में डूबे लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंच सकती है।

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