दिल्ली की हवा “सेवर प्लस” है, फेफड़े “इमर्जेंसी वार्ड” में हैं, डॉक्टर N95 और एयर प्यूरिफायर की सलाह दे रहे हैं – और उधर टीवी पर एक आवाज़ गूँजती है: “एयर प्यूरिफायर तो अमीरों का चोचला है, पर्दा लगा लो, योग करो।” हरिशंकर परसाई होते, तो शायद लिखते – “हमारे यहाँ विकास की परिभाषा यह है कि आदमी मर भी जाए, पर ‘आदर्शवाद’ ज़िंदा रहना चाहिए।”
‘एयर प्यूरिफायर अमीरों के चोचले’, और धूल विकास का प्रमाण
योग गुरु बाबा रामदेव का ताज़ा ज्ञान यह है कि एयर प्यूरिफायर लेना “अमीरों की ऐय्याशी” है; विकास होगा तो धूल तो उड़नी ही है, ऐसे में घर में पर्दे लगा लो और योग कर लो, वही काफी है। यानी AQI 450 है, PM2.5 फेफड़ों में जा रहा है, बच्चा नेबुलाइज़र पर है – और समाधान है “पर्दा” और “प्राणायाम”; विज्ञान बीच में आए, उससे पहले आध्यात्मिक मार्केटिंग पूरी हो ले।
परसाई ने लिखा था, “मूर्खता का आत्मविश्वास सर्वोपरि होता है।” आज ये वाक्य AQI की तरह हर स्क्रीन पर टंगा हुआ दिखता है – स्क्रीन के इस तरफ खाँसता हुआ आदमी, उस तरफ बेफिक्र चेहरा जो बता रहा है कि समस्या तुम्हारी नहीं, तुम्हारे पास पर्दे कम हैं। विकास ऐसा कि सड़क पर धूल, छत पर स्मॉग, और कमरा “विचारों से शुद्ध” घोषित है।
देहात के पर्दे, शहर के फेफड़े और ‘आदर्शवाद बघारने’ की कला
रामदेव का तर्क है कि एयर प्यूरिफायर अमीरों के लिए हैं, गरीब तो पर्दा लगाकर भी जी लेते हैं। परसाई कहते थे – “हमारे देश में सबसे आसान काम आदर्शवाद बघारना है और फिर घटिया से घटिया उपयोगितावादी की तरह व्यवहार करना।” जिनके अपने कमरे, गाड़ियों और स्टूडियो में फिल्टर चल रहे हों, वे टीवी पर आकर गरीब को समझाते हैं कि “ताज़ी हवा तो प्रकृति की देन है, पर्दा डालो, संन्यासी बनो, और खाँसते रहो – यह साधना है।”
स्थिति यह है कि एक तरफ AIIMS के डॉक्टर कहते हैं – N95 लगाइए, जितना हो सके घर के अंदर रहिए, संभव हो तो एयर प्यूरिफायर लगाइए; दूसरी तरफ टीवी पर सलाह है – “पर्दा लगेगा तो हवा शुद्ध हो जाएगी।” परसाई होते तो लिखते – “यह वही देश है जहाँ आदमी से कहा जाता है कि तू अपने फेफड़े बचाने की कोशिश मत कर, तेरी तकलीफ हमारे आध्यात्मिक ब्रांड की मार्केटिंग में बाधा डालती है।”
जब समाधान से ज़्यादा ज़रूरी है ‘थोपना’
दिलचस्प यह है कि जब कोई बायोहैकर भारत की हवा को लेकर सवाल उठाता है तो उसे ब्लॉक कर दिया जाता है, लेकिन जब करोड़ों लोग अपने बच्चों की खाँसी से सवाल पूछते हैं तो उन्हें ‘संतोष’ का उपदेश मिलता है। परसाई का एक और तीर याद आता है – “आम भारतीय अविश्वास, निराशा और जिजीविषा खाकर जीता है।” आज उसमें एक और चीज़ जोड़ दीजिए: PM2.5।
सवाल यह नहीं कि एयर प्यूरिफायर हर किसी के घर में लगे, न ही यह कि योग बेकार है। सवाल यह है कि जो साधन उपलब्ध हैं, जो विज्ञान बता रहा है, जिन्हें खुद “ऊपर” के लोग चुपचाप इस्तेमाल कर रहे हैं, उन्हें गरीब के लिए “चोचला” घोषित कर देना किस तरह की नैतिकता है? यह वही “विकलांग श्रद्धा का दौर” है, जहाँ आदमी से कहा जाता है – “तू धुआँ मत कोस, अपनी श्रद्धा कमज़ोर है।”



