सदन से सड़क मंत्रालय तक: प्रियंका गांधी की मांग पर नितिन गडकरी का तुरंत रिस्पॉन्स

प्रियंका गांधी ने संसद परिसर में ही नितिन गडकरी से मुलाकात के लिए समय मांगा। कहा जा रहा है कि गडकरी ने बिना किसी औपचारिक देरी के तुरंत अपॉइंटमेंट दे दिया और अपने दफ्तर में उन्हें मिलने बुला लिया।

संसद के गलियारों में अक्सर नेताओं के बीच तीखी बहस, नारेबाज़ी और राजनीतिक तकरार की तस्वीरें दिखती हैं, लेकिन कभी-कभी इन्हीं दीवारों के बीच संवाद और संवेदनशीलता के दुर्लभ पल भी दर्ज हो जाते हैं। प्रियंका गांधी और केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी के बीच हुई ताज़ा मुलाकात को कई लोग ऐसे ही पलों में से एक मान रहे हैं, जहां सियासत से परे जाकर बात करने की कोशिश दिखी।

प्रियंका गांधी ने संसद परिसर में ही नितिन गडकरी से मुलाकात के लिए समय मांगा। कहा जा रहा है कि गडकरी ने बिना किसी औपचारिक देरी के तुरंत अपॉइंटमेंट दे दिया और अपने दफ्तर में उन्हें मिलने बुला लिया। यह त्वरित सहमति सिर्फ एक मीटिंग नहीं, बल्कि उस राजनीतिक परंपरा की याद भी दिलाती है जब वैचारिक मतभेदों के बावजूद संवाद के दरवाज़े बंद नहीं होते थे।

मुलाकात के एजेंडे को लेकर अलग‑अलग राजनीतिक हलकों में कई तरह की कयासबाज़ी चल रही है—किसी के अनुसार यह किसी सड़क/इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट से जुड़ी लोकहित की मांग हो सकती है, तो कोई मान रहा है कि यह अपने क्षेत्र के विकास से जुड़ी शिकायतों और सुझावों को सीधे मंत्री के सामने रखने की कोशिश थी। जो भी हो, यह साफ दिखा कि प्रियंका ने सत्तारूढ़ सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री से सीधे बात करने का रास्ता चुना और गडकरी ने भी बिना औपचारिक दूरी बनाए संवाद के लिए दरवाज़ा खोला।

राजनीतिक दृष्टि से यह दृश्य दिलचस्प है। एक तरफ कांग्रेस और बीजेपी के बीच कटु आरोप‑प्रतिआरोप का दौर जारी है, वहीं दूसरी तरफ इन्हीं पार्टियों के नेता संसद भवन की छत के नीचे बैठकर आम मुद्दों पर चर्चा के लिए समय निकाल रहे हैं। लोकतंत्र का असली सौंदर्य भी शायद यही है—सड़क, रोज़गार, किसान, महंगाई या विकास जैसे सवाल आखिरकार बहस से निकलकर किसी टेबल तक पहुंचते हैं, जहां दो विरोधी पक्ष एक ही फाइल पर अपनी बात रखते हैं।

भावनात्मक स्तर पर देखें तो यह घटना उन आम नागरिकों को भी राहत का अहसास कराती है, जो दिन‑रात नेताओं को सिर्फ टीवी डिबेट की ज़ुबानी जंग में देखते हैं। उन्हें यह भरोसा चाहिए कि संसद में सिर्फ शोर नहीं, सुनवाई भी होती है; सिर्फ विरोध नहीं, समाधान की कोशिश भी चलती है। प्रियंका‑गडकरी मुलाकात जैसे प्रसंग इसी भरोसे को थोड़ी हवा देते हैं कि मतभेद चाहे जितने हों, बातचीत की गुंजाइश कभी पूरी तरह खत्म नहीं होती।

लोकतांत्रिक राजनीति में व्यक्तित्व की भाषा अक्सर पार्टी लाइन पर भारी पड़ जाती है। गडकरी का सहज अंदाज़ और प्रियंका की सीधी बातचीत की शैली—दोनों मिलकर यह संदेश देते हैं कि सियासत अगर टकराव की ज़मीन पर खड़ी है, तो भी पुल बनाने की कोशिशें अभी ज़िंदा हैं।

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