वंदे मातरम् पर मुस्लिम धर्मगुरुओं में मतभेद, जानिए क्या है तर्क ?

सुन्नी धर्मगुरु मौलाना अरशद मदनी इसे इस्लामी आस्था के खिलाफ ‘शिर्क’ बताते हैं, जबकि शिया धर्मगुरु इसे मातृभूमि को सलाम और देशभक्ति का जायज़ इज़हार मानते हैं।

Vande Mataram Row:  वंदे मातरम् को लेकर मुस्लिम समुदाय के भीतर इस समय साफ मतभेद उभरकर सामने आए हैं। सुन्नी धर्मगुरु मौलाना अरशद मदनी इसे इस्लामी आस्था के खिलाफ ‘शिर्क’ बताते हैं, जबकि शिया धर्मगुरु इसे मातृभूमि को सलाम और देशभक्ति का जायज़ इज़हार मानते हैं और मदनी की सोच को ‘तालिबान जैसी मानसिकता’ कहकर खारिज कर रहे हैं।​

अरशद मदनी का तर्क: देशप्रेम बनाम ‘शिर्क’

जमीयत उलेमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी ने X पर और मीडिया बयानों में कहा है कि मुसलमानों को किसी के वंदे मातरम् पढ़ने या गाने पर एतराज़ नहीं, लेकिन वे खुद इसे इबादत के रूप में नहीं स्वीकार कर सकते।​

उनका तर्क है कि गीत के जिन चार मूल पदों में देश को देवी, विशेषकर ‘दुर्गा माता’ के रूप में रूपायित करते हुए “माँ, मैं तेरी पूजा करता हूँ” जैसी भावाभिव्यक्ति आती है, वे इस्लामी तौहीद (एकेश्वरवाद) के खिलाफ हैं और इसीलिए उनके लिए ‘शिर्क’ यानी अल्लाह के साथ किसी और को साझी बनाना मानी जाएँगी।​

मदनी ने संविधान के अनुच्छेद 19 और 25 का हवाला देकर कहा कि किसी नागरिक को उसकी अंतरात्मा और धर्म के विरुद्ध कोई नारा या गीत बोलने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता और मुसलमानों की देशभक्ति साबित करने के लिए वंदे मातरम् की कसौटी थोपना गलत है।​

शिया बोर्ड की राय: मातृभूमि को सलाम, तालिबानी मानसिकता नहीं

इसके विपरीत, ऑल इंडिया शिया पर्सनल लॉ बोर्ड के जनरल सेक्रेटरी मौलाना यासूब अब्बास ने साफ कहा कि वंदे मातरम् गाना या उसका सम्मान करना इस्लामी आस्था के खिलाफ नहीं है, अगर इसे देश के सम्मान और मातृभूमि को सलाम के रूप में समझा जाए, न कि देवी–पूजा के रूप में।​

उन्होंने तर्क दिया कि देश से प्रेम और देश के लिए गीत गाना इस्लाम में मना नहीं है। इरादा अहम है – अगर नीयत इबादत की जगह देशभक्ति और सम्मान की है, तो इसे हराम नहीं कहा जा सकता।​

यासूब अब्बास और कुछ अन्य शिया उलेमा ने अरशद मदनी की बातों को “तालिबान जैसी मानसिकता” बताते हुए कहा कि ऐसी कट्टर व्याख्या से मुसलमानों को मुख्यधारा से दूर दिखाने की कोशिश होती है, जबकि भारत का इस्लामी समाज लोकतांत्रिक और बहुलतावादी मूल्यों के साथ खड़ा है।​

संसद की बहस और समाज में संदेश

वंदे मातरम् के 150 वर्ष पूरे होने के संदर्भ में संसद में इसे अनिवार्य करने की कुछ मांगों के बाद यह धार्मिक–राजनीतिक बहस और तेज हो गई है। एक पक्ष इसे राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक मानते हुए हर नागरिक से गाने की अपेक्षा कर रहा है, जबकि दूसरा पक्ष कह रहा है कि देशभक्ति की कई वैध अभिव्यक्तियाँ हो सकती हैं और किसी एक नारे या गीत को “लिटमस टेस्ट” बनाना उचित नहीं।​​

धर्म विशेषज्ञ मानते हैं कि सुन्नी–शिया उलेमाओं के ये अलग मत दरअसल इसी मूल सवाल को छूते हैं कि राष्ट्रगीत/राष्ट्रगान की धार्मिक व्याख्या की जाए या उसे संवैधानिक–सांस्कृतिक प्रतीक के रूप में देखा जाए। बहस चाहे जितनी तेज़ क्यों न हो, अंतिम तौर पर समाधान संविधान द्वारा दी गई अभिव्यक्ति और आस्था की स्वतंत्रता की सीमाओं के भीतर ही तलाशना होगा।

 

Exit mobile version