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Dolo-650: दवा के नाम पर कंपनियां कर रही हैं बड़ा खेल, अभी तक नहीं मिला है Dolo-650 के कारगर होने का सबूत

Web Desk by Web Desk
August 20, 2022
in राष्ट्रीय, विशेष
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क्या आपने भी कोविडकाल में बुखार और दर्द को कम करने के लिए दिन में तीन बार पैरासिटामॉल 500 एमजी के बजाए ” पैरासिटामॉल 650 एमजी” की दवा लंबे वक्त तक खाई थी। अगर जवाब हां है तो आप भी जरूर डोलो 650 नाम की दवा से परिचित हो गए होंगे। दरअसल डोलो 650 वह दवा है जो कि एक मार्केट रणनीति के तहत आप तक पहुंच रही थी। सुप्रीम कोर्ट में फेडरेशन ऑफ मेडिकल एंड सेल रेपरजेंटेटिव्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया  (एफएमआरएआई)  की ओर से दाखिल की गई ताजा याचिका भारत में दवा कंपनियों की अनैतिक बाजार रणनीति व डॉक्टर्स की अन-एथिकल मेडिकल प्रैक्टिस के बारे में गंभीर सवाल खड़े कर रही है। 

मामले को सुप्रीम कोर्ट में  एफएमआरएआई की तरफ से उठाने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता संजय पारीख ने डाउन टू अर्थ से कहा कि “कोविड में गलत तरीके से बेची गई डोलो-650 का मामला इस बात की सबसे ताजा मिसाल है कि कंपनियों के जरिए अन-एथिकल प्रैक्टिस जारी है। मीडिया रिपोर्ट्स में भी इस बात का स्पष्ट जिक्र है कि इस दवा को बेचने के लिए करीब 1000 करोड़ रुपए के उपहार डॉक्टर्स को बांटे गए।”  

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वह आगे कहते हैं कि इस बात को भी नजअंदाज किया गया कि ओवरडोज पैरासिटॉमॉल का दुष्प्रभाव लीवर और किडनी पर भी  पड़ सकता है।    .

सुप्रीम कोर्ट में  एफएमआरएआई की याचिका में आरोप लगाया गया है कि पैरासिटामॉल 650 एमजी के सपोर्टिंग यूज यानी सहायक होने का मेडिसिन टेक्सटबुक में कोई सबूत नहीं है। दरअसल ड्रग प्राइस कंट्रोल अंडर्स (डीपीसीओ) दवाओं की कीमत को नियंत्रित रखता है। पैरासिटामॉल 500 एममजी के 10 टैबलेट की कीमत 2013 में 5 रुपए 10 पैसे थी। दवा कंपनियों ने पैरासिटमॉल का दाम बढाने के लिए एक रणनीति का सहारा लिया। उन्होंने पैरासिटमॉल 650 एमजी को पेश किया जिसकी कीमत 17.50 रुपए रखी। यानी पैरासिटामॉल 500 के मुकाबले तीन गुना दाम ज्यादा था। 

कोविड काल में पैरासिटामॉल 650 एमजी को ही दिन में तीन बार और लंबे समय तक खाने के लिए डाक्टर परामर्श करते रहे जबकि इस बात का कोई सबूत नहीं है कि यह ज्यादा प्रभावी है। 

दवा कंपनियां ऐसा क्यों और कैसे कर पा रही हैं? 

याचिका में एक अध्ययन के आधार पर कहा गया है कि दवा क्षेत्र (फॉर्मास्यूटिकल सेक्टर) की कंपनियां  दवाओं का खूब बढ़ चढ़कर प्रमोशन और मार्केटिंग करती हैं जबकि इसको विनियमित करने के लिए कोई कानून ही मौजूद नहीं है।  

याचिका के मुताबिक 1945-1986 के बीच कई कानून और गाइडलाइन बनाई गई जो दवाओं के निर्माण, बिक्री और वितरण को विनियमित करते हैं। हालांकि, दवा कंपनियों के मार्केटिंग को विनियमित करने वाला कोई कानून नहीं लाया गया। 

याचिका में कहा गया है कि “जो कानून लागू हैं उनमें ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक एक्ट ऑफ 1940, रूल्स ऑफ 1945 है जिसके तहत दवाओं के निर्माण, बिक्री और वितरण को  विनियमित किया जाता है।  इसके अलावा ड्रग्स एंड मैजिक रेमेडीज (ऑब्जेक्शनेबल एडवर्टीजमेंट) एक्ट, 1954, द कंज्यूमर प्रोटेक्शन एक्ट, 1986 लागू हैं। हालांकि दवा कंपनियों के मार्केटिंग और प्रमोशन को विनियमित करने वाला कोई कानून नहीं है। इसलिए दवा कंपनियां निरंकुश होती जा रही हैं।”

इतना ही नहीं, डॉक्टर्स और दवा कंपनियों के बीच कदाचार के रिश्तों को लेकर भी एकतरफा कानून बना है। यानी अनैतिक अभ्यास या कदाचार के लिए डॉक्टर का लाइसेंस रद्द किया जा सकता है लेकिन उन्हें प्रलोभन देने वाली या कदाचार के लिए उकसाने वाली दवा कंपनियां उस कानून के दायरे से मुक्त हैं।  

याचिका के मुताबिक  वर्ष 2002 में द इंडियन मेडिकल काउंसिल ( प्रोफेशनल कंडक्ट, एटिकेट एंड इथिक्स)  रेग्यूलेशन लाया गया था जिसके तहत दवा कंपनियों के जरिए चिकित्सकों को उपहार, मनोरजंन, यात्रा सुविधांए, कैश या अन्य मौद्रिक लाभ आदि देने के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया था। 

डॉक्टर पर यदा-कदा कानूनी डंडे चलते हैं लेकिन भारत की कंपनियां गलत अभ्यास का आनंद ले रही हैं। 

सुप्रीम कोर्ट में दाखिल याचिका बताती है कि दुनियाभर में संयुक्त राज्य, फ्रांस, जर्मनी, हंगरी, इटली, यूके, वेनेजुएला, अर्जेंटाइन, रूस, चीन, हांग-कांग, सिंगापुर, ऑस्ट्रेलिया, साउथ कोरिया, फिलीपींस, मलेशिया और ताइवान जैसे देशों में फार्मा क्षेत्र में भ्रष्टाचार को कम करने के लिए कड़े कानून बनाए गए हैं। इनमें पहला तरीका वो सामान्य कानून हैं जो प्राइवेट सेक्टर में घूस को रोकते और प्रतिबंधित करते हैं। दूसरा तरीका है कि कुछ विशेष कानून या प्रावधान किए गए हैं जो फार्मा कंपनियों के करप्शन को रोकते हैं। 

याचिका के मुताबिक इन देशों में प्रभावी तौर पर इन कानूनों को लागू किया गया है जिसके चलते फार्मा कंपनियों के खिलाफ न सिर्फ आपराधिक मामले चले हैं बल्कि उन पर बड़े जुर्माने भी लगाए गए हैं। इनमें 1996 में जर्मनी में हार्ट वाल्व स्कैंडल के लिए डॉक्टर को मौत की सजा सुनाई गई। इसके अलावा 2009 में जॉनसन एंड जॉनसन पर 2.2 बिलियन यूएस डॉलर का जुर्माना लगाया गया। इसके अलावा 2013 में फाइजर को सिविल और क्रिमिनल आरोपों को सेटल करने के लिए 2.3 बिलियन यूएस डॉलर का जुर्माना लगाया गया। वहीं, 2014 में गैलेक्सो स्मिथ क्लाइन (जीएसके) ने 3 बिलियन यूरो का जुर्माना भरा और 4 अधिकारियों को चीन की जेल में भेजा गया। 2018 में  भारत में रिश्वत देने के लिए फाइजर को 23.85 मिलियन यूएस डॉलर जुर्माना भरना पड़ा। 

दवाओं की बिक्री बढ़ाने के लिए दवा कंपनियों और डॉक्टर्स के बीच सांठ-गाठ का यह खेल लगातार जारी है। याचिका के मुताबिक एक अध्ययन में पाया गया कि 7 बड़ी फार्मा कंपनियों ने आठ वर्षों में कुल 34,186.95 करोड़ रुपए मार्केटिंग पर खर्च किया, जिसने दवा की कीमतों में काफी इजाफा किया। सेल्स प्रमोशन दवा की लागत का करीब 20 फीसदी हिस्सेदारी करता है। यानी आप जो दवा खरीदते हैं उसमें 20 फीसदी पैसा कंपनी को सेल्स प्रमोशन का अदा करते हैं।

याचिका दाखिल करने वाले फेडरेशन ऑफ मेडिकल एंड सेल रेपरजेंटेटिव्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया ने अपने आरोपों में कहा है कि एक साल में करीब 42000 करोड़ रुपए की रिटेल मेडिसिन बेची गई जिसमें से अधिकांश विसंगत (इरेशनल) और नुकसानदायक (हार्मफुल) है। जिसे सरकार द्वारा कई सालों से नजरअंदाज किया जा रहा है। तमाम विरोधों के बावजूद डीजीओ ने 294 कांबिनेशन मेडिसिन को गैरमंजूर किया लेकिन प्रतिबंधित नहीं किया। बाद में डीजीसीआई की सहमति से 100 से ज्यादा ऐसे कांबिनेशन बाजार में बिक रहे हैं। सरकार औऱ दवा कंपनियों के बीच भी सांठ-गांठ है। 

भले ही दवा कंपनियां सीधा किसी तरह का उपहार या कैश डॉक्टर्स को नहीं दे सकती हैं। हालांकि सेल्स प्रमोशन के नाम पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष दवा कंपनियां चिकित्सकों को प्रलोभन और लाभ देती हैं। इसलिए चिकित्सक कई तरह से आम लोगों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। 

याचिका में कहा गया है कि अनैतिक अभ्यास के तहत मरीजों को लंबे वक्त के लिए जरूरत से ज्यादा मात्रा और ज्यादा क्षमता वाली दवाएं परामर्श में लिखी जाती हैं। इसके अलावा ऐसे कॉम्बिनेशन की दवा भी पर्चे में लिखी जाती है जो गैर जरूरी होती है। 

फार्मा कंपनियों के अनएथिकल प्रैक्टिस के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में आवाज उठा रहे एडवोकेट संजय पारीख ने डाउन टू अर्थ से कहा कि “सरकार ने तमाम विरोधों के बाद 2015 में यूनिफॉर्म कोड फॉर फार्मास्यूटिकल्स मार्केटिंग प्रैक्टिसेज को लागू करने का प्रस्ताव किया था जिसे वालेंटरी कहा गया था और सरकार ने स्वयं कहा था कि हम छह महीने तक देखेंगे कि यह कोड कार्य करता है या नहीं। इसके बाद इसे कानूनी प्रावधान बनाएंगे। लेकिन यह आज तक नहीं हो पाया है। वहीं फार्मा कंपनी खुद से विनियमन करने में विफल हैं।” 

वह आगे कहते हैं ” अंतरराष्ट्रीय प्रावधानों की तरह एक सख्त कानून की जरूरत है जो फार्मा कंपनियां को  प्रॉफिट के लिए अनैतिक अभ्यास पर न सिर्फ अंकुश लगाए बल्कि लोगों की सेहत से खिलवाड़ करने के लिए उन्हें कड़ी सजा दे।” 

सुप्रीम कोर्ट अब इस मामले पर सुनवाई कर रहा है। इससे पहले डोलो 650 के गलत परामर्श का मामला सामने आया लेकिन कोई कार्रवाई नहीं की गई।

 ( साभार – विवेक मिश्रा, वरिष्ठ संवाददाता, डाउन टू अर्थ)

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