Diwali 2025 : इस गांव में दिवाली पर लगता है ‘पत्थर मेला’, जानें घायलों के खून से क्यों किया जाता है मां काली का तिलक

हिमाचल प्रदेश के इस गांव में दिवाली पर्व पर लगता है पत्थर मेला, ग्रामीण एक-दूसरे पर करते हैं पत्थरों की बारिश, फिर घायल के खून से मां काली का किया जाता है तिलक।

नई दिल्ली ऑनलाइन डेस्क। देश में दीपावली पर्व को लेकर तैयारियां जोरों पर चल रही हैं। घरों की रंगाई-पोताई का काम जारी है। बाजारों में सुबह से लेकर देररात तक रौनक रहती है। कुछ ऐसा ही नजारा हिमाचल प्रदेश के शिमला के पास धामी स्थित हलोग गांव में देखने को मिल रहा है। यहां ग्रामीण दीपावली पर्व की खास तैयारियों में जुटे हैं। इस गांव में दिवाली पर्व पर सदियों पुरानी एक अनोखी परंपरा निभाई जाती है, जिसे ’पत्थर मेला’ या ’बुग्गा मेला’ कहते हैं। यह मेला साहस, अटूट आस्था और सांकेतिक बलिदान का ऐसा संगम है, जहां परंपरा के नाम पर पत्थरों की बारिश होती है।

हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला से करीब 15 किलोमीटर दूर धामी कस्ब्बा है। यहीं पर हलोग गांव है।य हां हर साल दिवाली पर एक विचित्र और ऐतिहासिक उत्सव मनाया जाता है। जिसे स्थानीय लोग ‘पत्थर मेला’ कहते हैं। माना जाता है कि जब तक किसी व्यक्ति के शरीर से खून की बूंद न निकले, तब तक यह उत्सव अधूरा माना जाता है। यही वजह है कि पत्थर मेला सिर्फ़ एक खेल नहीं, बल्कि हलोग की ऐतिहासिक पहचान और लोगों की अटूट आस्था का प्रमाण है, जिसे देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं। दिवाली से कईदिन पहले यहां लोगों का आने का सिलसिला शुरू हो जाता है। गांव के लोग जो दूसरे अन्य शहरों में रहते हैं वह दीपावली पर्व पर गांव आ जाते हैं और पत्थर मेला में शामिल होते हैं।

पत्थर मेला की परंपरा की जड़ें सदियों पुरानी हैं। दरअसल, पुराने समय में धामी में मानव बलि की प्रथा थी और हर साल मां भीमा काली मंदिर में इसे अंजाम दिया जाता था। कहा जाता है कि देवी को प्रसन्न करने के लिए दूर से पत्थर फेंके जाते थे और घायलों के रक्त को मंदिर में अर्पित किया जाता था। इस क्रूर प्रथा को रोकने के लिए, रियासत की एक रानी ने चौराहे पर सती होकर मानव बलि की जगह एक नई, प्रतीकात्मक परंपरा शुरू की। इसके बाद, पत्थरबाजी का यह खेल शुरू हुआ। पत्थर मेला हलोग गांव में हर साल दीपावली के अगले दिन आयोजित होता है, जो कि ’कटेदु’ और ’झानोगी’ नामक दो समूहों के बीच यह खेल दोपहर में शुरू होता है। और किसी के घायल होने पर समाप्त हो जाता है।

इस खेल में जैसे ही किसी प्रतिभागी को पत्थर लगता है और खून बहता है, पुजारी उस रक्त को एकत्र करते हैं और उसे मंदिर में ले जाकर मां भीमा काली को तिलक लगाते हैं। यही कारण है कि यह केवल खेल नहीं, बल्कि त्याग, साहस और सामुदायिक एकता का प्रतीक बन गया है। जिसके चलते ग्रामीण अपनी सांस्कृतिक विरासत का सम्मान करते हुए इस अनूठी और जोखिम भरी परंपरा को जीवित रखे हुए हैं। पत्थर मेला सिर्फ़ रोमांचक खेल नहीं, बल्कि हिमाचल की लोक परंपराओं और सांस्कृतिक इतिहास का जीवंत प्रमाण है। यह त्योहार हलोग गांव के लोगों के लिए गहरी आस्था और गौरव का प्रतीक बन चुका है। यहां आने वाले पर्यटक केवल खेल का आनंद ही नहीं लेते, बल्कि इस अनोखी परंपरा के माध्यम से स्थानीय संस्कृति और विश्वास से भी जुड़ते हैं।

यही वजह है कि हलोग गांव का यह पत्थर मेला शिमला के नज़दीकी क्षेत्र में एक अनोखी और यादगार दिवाली की पहचान बन चुका है। धामी के लोग मानते हैं कि यह परंपरा उनके पूर्वजों की आस्था और देवी भक्ति का प्रतीक है। वहां के एक स्थानीय बुजुर्ग का कहना है कि यह कोई हिंसा नहीं, बल्कि देवी के प्रति श्रद्धा का अनोखा रूप है। धामी का यह पत्थरबाजी उत्सव भले ही आज के समय में अजीब लगे, लेकिन ये खेल लोगों की आस्था से जुड़ा हुआ है। दीपावली पर यहां हरसाल हजारों लोग पत्थर मेला को देखने के लिए आते हैं। मेला के संपन्न होने के बाद मां काली के मंदिर में जाकर पूजा-अराधना करते हैं।

 

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