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History of matchstick : एक छोटी सी डिब्बी,जिसने ज़िंदगी को किया रोशन जानिए आग की खोज से लेकर अब तक का सफर

माचिस सिर्फ आग जलाने का जरिया नहीं, बल्कि विज्ञान और समाज से जुड़ा अहम प्रतीक है। इसकी यात्रा आग की खोज से शुरू होकर आज भी आम जनजीवन का हिस्सा बनी हुई है।

by SYED BUSHRA
May 26, 2025
in राष्ट्रीय
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Matchstick Invention History :आज भले ही हर घर में गैस लाइटर, इलेक्ट्रिक स्टोव और स्मार्ट किचन गैजेट्स हों, लेकिन एक समय था जब माचिस की डिब्बी को बड़े जतन से संभालकर रखा जाता था। यह सिर्फ चूल्हा जलाने या बीड़ी-सिगरेट सुलगाने की चीज़ नहीं थी, बल्कि हर रस्म, त्यौहार और पूजा का अहम हिस्सा थी। ‘टाइगर’, ‘सिंह’, ‘दीपक’ जैसी ब्रांडेड माचिस की डिब्बियां आज भी लोगों की यादों में बसी हुई हैं।

आग की खोज, इंसान की सबसे बड़ी तरक्की

आग की खोज इंसानी विकास का सबसे बड़ा पड़ाव रहा है। माना जाता है कि 3500 ईसा पूर्व मिस्र में लोग चीड़ की लकड़ियों को सल्फर में डुबोकर आग जलाते थे। चीन में भी 577 ई. के आस-पास सल्फर लगी तीलियों का इस्तेमाल शुरू हुआ। यह माचिस का सबसे शुरुआती रूप था।

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रासायनिक माचिस का जन्म 

1805 में फ्रांस के एक केमिस्ट जीन चांसल ने सबसे पहली केमिकल माचिस बनाई, जिसमें पोटैशियम क्लोरेट, गोंद और चीनी मिलाई गई थी। यह माचिस असुरक्षित थी क्योंकि ये खुद से भी जल सकती थी। 1826 में इंग्लैंड के जॉन वॉकर ने एक और केमिकल माचिस बनाई, जो किसी भी खुरदुरी सतह पर रगड़ने से जल जाती थी। इसे ही असली माचिस का शुरुआती रूप माना गया।

सुरक्षित माचिस की शुरुआत 

स्वीडन के वैज्ञानिक गुस्ताफ एरिक पास्च ने 1844 में एक सेफ्टी माचिस बनाई, जिसमें तीली और डिब्बी के रसायन अलग-अलग थे। बाद में लुंडस्ट्रॉम नामक वैज्ञानिक ने इसे व्यापारिक तौर पर विकसित किया। इसी दौरान माचिस डिब्बी का डिज़ाइन भी सामने आया, जो आज तक उपयोग में है।

माचिस बनी प्रचार का जरिया

1895 में पहली बार माचिस की डिब्बी पर विज्ञापन छपा, जिसे Mendelssohn Opera Company ने अपने शो के प्रमोशन के लिए किया। इसके बाद होटल, रेस्टोरेंट और राजनीतिक प्रचार में भी माचिस का खूब इस्तेमाल हुआ। इसने लोगों को आकर्षित किया और कई लोग इन्हें इकट्ठा करने लगे। इस शौक को ‘फिलुमनी’ कहा गया।

भारत में माचिस का आगमन और सफर

भारत में माचिस का पहला कारखाना 1910 में कोलकाता में शुरू हुआ। बाद में ये उद्योग तमिलनाडु के शिवाकाशी शहर में पहुंचा, जहां नाडार समुदाय ने इसे आगे बढ़ाया। आज भी शिवाकाशी भारत की माचिस राजधानी माना जाता है।

चुनौतियां और भविष्य

आज माचिस उद्योग दो हिस्सों में बंटा है।हाथ से बनी और मशीन से बनी माचिसें। हाथ से बनी माचिसें कई लोगों को रोजगार देती हैं, लेकिन इनकी लागत ज्यादा होती है। सस्ती चीनी माचिस, पर्यावरणीय नियम और महंगे कच्चे माल के कारण उद्योग को कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। फिर भी, इसकी जरूरत और सादगी इसे टिकाऊ बनाए रखती है।

माचिस और हमारी संस्कृति

आज भले ही लाइटर और इंडक्शन चूल्हों ने माचिस की जगह ले ली हो, लेकिन गांवों, मंदिरों और धार्मिक अवसरों पर इसकी अहमियत आज भी कायम है। यह न सिर्फ उपयोगी है बल्कि हमारी परंपराओं और संस्कृति से गहराई से जुड़ी हुई है।

Tags: History FactsInventions
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