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Holi festival: जानिए 39 लाख वर्ष पहले कहां मनाई गई थी होली, भगवान विष्णु और महादेव ने किसे लगाया रंग-गुलाल

होली पर्व को लेकर अभी से तैयारियां शुरू हो गई हैं, रंगबाज रंगों की टोलियां तैयार करने में जुटे हुए हैं, होली पर्व की शुरूआत सतयुग में हुई थी।

Vinod by Vinod
March 3, 2025
in Latest News, TOP NEWS, धर्म, राष्ट्रीय
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नई दिल्ली ऑनलाइन डेस्क। होली पर्व को लेकर पूरे देश में धूम हैं। बाजार सज चुके हैं। गांव-गांव, शहर-शहर होलिका दहन को लेकर तैयारियां जोरों पर चल रही र्हैं। वृंदावन भी रंगें के पर्व पर सराबोर है तो कानपुर में भी क्रांतिकारियों के जमाने से खेली जा रही होली को लेकर रंगबाज चौपाल लगाकर रधनीति बनाने में जुटे हैं। पुलिस-प्रशासन ने भी कमर कस ली है और पर्व को शांतिपूर्ण निपटाने को लेकर अधिकारी अभी से बैठकें कर रहे हैं। ऐसे में हम आपको होली पर्व के अनसुने किस्सों से रूबरू कराने जा रहे हैं।

सतयुग में सबसे पहले बनाई गई होली

हिंदू पंचांग के अनुसार, होली फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाने वाला रंगोत्सव है। इस तरह यह पर्व भी है और त्योहार भी। होली आज से 39 लाख वर्ष पहले, यानी राम-कृष्ण के काल से भी पहले, सतयुग से मनाई जा रही है। होली पर्व को लेकर कई कथाएं प्रचलित हैं। किंतु, सबसे पुरानी और प्रचलित कथा सतयुग है। ऐसे में कह सकते हैं कि होली सतयुग से मनाई जाती रही है। ज्योतिषाचार्य बताते हैं कि सतयुग में सबसे पहले होली पर्व मनाया गया। तब से ये पर्व निरंतर जारी है।

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चार युग

ज्योतिषाचार्य बताते हैं कि, चार युग होते हैं, सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग। हमारे शास्त्रों में 1 युग लाखों वर्षों का बताया गया है। सतयुग करीब 17 लाख 28 हजार वर्ष, त्रेतायुग 12 लाख 96 हजार वर्ष, द्वापर युग 8 लाख 64 हजार वर्ष, तो कलियुग 4 लाख 32 हजार वर्ष का होना है। इस हिसाब से ही गणना कहती है कि होली 39 लाख वर्ष पहले, सतयुग से मनाई जा रही है। तब, भगवान ने नृसिंह अवतार लिया था और हिरण्यकश्यप का वध किया था। इसी के बाद से होली पर्व की शुरूआत हुई थी।

हिरण्यकश्यप के पुत्र प्रह्लाद का जन्म

होली पर्व को लेकर ज्योतिषाचार्य बताते हैं, सतयुग में एक अति पराक्रमी दैत्य राजा हिरण्यकश्यप् था। हिरण्यकश्यप के भाई हिरण्याक्ष का भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर वध किया था। इस कारण हिरण्यकश्यप उन्हें दुश्मन मानता था। हिरण्यकश्यप का विवाह कयाधु से हुआ, जिससे उसे प्रह्लाद नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। हिरण्यकश्यप ने मनचाहे वरदान के लिए ब्रह्मा की तपस्या शुरू की। इस दौरान देवताओं ने उसकी नगरी पर आक्रमण कर दिया और वहां अपना शासन स्थापित कर लिया। उस समय देवर्षि नारद मुनि ने कयाधु की रक्षा की और अपने आश्रम में स्थान दिया। वहीं पर हिरण्यकश्यप के पुत्र प्रह्लाद का जन्म हुआ।

स्वयं को भगवान घोषित कर दिया

ज्योतिषाचार्य बताते हैं, देवर्षि नारद मुनि की संगत में रहने के कारण प्रह्लाद भगवान विष्णु का भक्त बन गया। उधर, कई वर्षों तक तपस्या के बाद हिरण्यकश्यप को ब्रह्मा ने दर्शन दिए। हिरण्यकश्यप ने वरदान मांगा कि मेरी मृत्यु मनुष्य या पशु के हाथों न हो, न किसी अस्त्र-शस्त्र से, ना दिन व रात में, ना भवन के बाहर और ना ही अंदर, न भूमि ना आकाश में हो मेरी मृत्यु हो। कुल मिलाकर, अपनी समझ में उसने अमरता का वरदान मांगा। ब्रह्मा ने उसे यह वरदान दे दिया। किंतु, इसके बाद वह निरंकुश हो गया। वह ऋषि-मुनियों की हत्या करवाने लगा और स्वयं को भगवान घोषित कर दिया।

और प्रह्लाद बच गया

ज्योतिषाचार्य बताते हैं, पर उसका पुत्र प्रह्लाद विष्णु भक्ति में लीन रहता। यह बात हिरण्यकश्यप को पता चली तो वह गुस्से से फट पड़ा। बार-बार समझाने के बाद भी प्रह्लाद ने जिद नहीं छोड़ी तो उसने उसे मारने का फ़ैसला कर लिया। हिरण्यकश्यप की एक बहन थी होलिका। होलिका को भी भगवान ब्रह्मा से एक वरदान मिला था। यह कि उसे अग्नि नहीं जला सकती। हिरण्यकश्यप ने होलिका को कहा कि वह प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर अग्नि में बैठ जाए, ताकि प्रह्लाद भाग न सके और वह उसी अग्नि में जलकर ख़ाक हो जाए। होलिका ने किया तो ऐसा ही, किंतु वह ख़ुद भस्म हो गई और प्रह्लाद बच गया।

उत्सव का नाम ही होली पड़ गया

ज्योतिषाचार्य बताते हैं कि होलिका के एक वस्त्र में न जलने की शक्तियां समाहित थीं, किंतु भगवान विष्णु की कृपा से चली तेज आंधी से वह वस्त्र होलिका से हटकर, प्रह्लाद के शरीर से लिपट गया था। होलिका के जलने और प्रह्लाद के बच जाने पर नगरवासियों ने उत्सव मनाया, जिसे छोटी होली के रूप में भी जानते हैं। इसके बाद जब यह बात फैली तो विष्णु भक्तों ने अगले दिन और भी भव्य तरीके से उत्सव मनाया। होलिका से जुड़ा होने के कारण आगे इस उत्सव का नाम ही होली पड़ गया।

तब मनाई गई होली

ज्योतिषाचार्य बताते हैं कि होली की एक कहानी कामदेव की भी है। भगवान शिव तपस्या में लीन थे। तभी कामदेव ने भगवान शिव पर पुष्प बाण चला दिया। ध्यान भंग होने से शिव को इतना गुस्सा आया कि उन्होंने अपनी तीसरी आंख खोल दी और कामदेव भस्म हो गए। कामदेव के भस्म होने पर उनकी पत्नी रति रोने लगीं और कामदेव को जीवित करने की गुहार लगाई। इसके अगले दिन क्रोध शांत होने पर शिव ने कामदेव को पुनर्जीवित कर किया। माना जाता है कि कामदेव के भस्म होने पर होलिका जलाई जाती है, तो उनके जीवित होने की खुशी में रंगों का त्योहार होली मनाई जाती है।

जीत के प्रतीक के रूप में होली

महाभारत काल, यानि द्वापर में युधिष्ठिर को प्रभु श्रीकृष्ण ने एक कहानी सुनाई। एक बार श्रीराम के पूर्वज रघु के शासन मे एक असुर महिला थी। उसे कोई नहीं मार सकता था, क्योंकि उसे एक वरदान था। एक दिन, गुरु वशिष्ठ ने बताया कि उसे मारा जा सकता है, यदि बच्चे अपने हाथों में लकड़ी के छोटे टुकड़े लेकर शहर के बाहरी इलाके के पास चले जाएं और सूखी घास के साथ उनका ढेर लगाकर जला दें। फिर, उसके चारों ओर परिक्रमा करें, नृत्य करें, ताली बजाएं, गाना गाएं और नगाड़े बजाएं। फ़िर ऐसा ही किया गया और वह असुर मारी गई। कहा जाता है कि इसके बाद से बुराई पर जीत के प्रतीक के रूप में होली मनाई जाती है।

और यह एक कहानी भी होली से जुड़ गई

होली सबसे अधिक प्रसिद्ध हुई द्वापर युग, यानी श्रीकृष्ण के युग में। पौराणिक कथा के अनुसार, कंस को पता चला कि श्रीकृष्ण गोकुल में हैं, लेकिन यह नहीं पता था कि कहां। इसके बाद उसने पूतना नामक राक्षसी को गोकुल में जन्म लेने वाले सभी बच्चों को मारने को कहा। पूतना वेश बदलकर स्तनपान के बहाने शिशुओं को विषपान करा देती थी। लेकिन, कृष्ण ने दुग्धपान करते हुए ही पुतना के प्राण खींच लिए। पूतना के वध पर खुशियां मनाई गईं, और यह एक कहानी भी होली से जुड़ गई।

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