News 1 India, Bureau: क्या राजनीति के चक्कर में अखिलेश यादव इतने ज्यादा बौखला गए हैं कि उन्हें साधु और शैतान के बीच का फर्क नहीं दिख रहा। एक ओर अखिलेश मंगेश यादव के एनकाउंटर पर अभी तक छाती पीट रहे हैं क्योंकि वो बदमाश यादव था लेकिन अयोध्या की नाबालिग बच्ची की सुध उन्हें अभी तक नहीं आई, और तो और कन्नौज में नवाब सिंह यादव का डीएनए मैच होने के बाद भी दलित बच्ची के परिवार वालों से मिलने की फुर्सत अखिलेश को नहीं मिली। लेकिन एक डकैत के परिजनों को लखनऊ बुला लिया।
अखिलेश यादव और पीडीए का नारा
सवाल उठता है कि फिर क्या अखिलेश का पीडीए का नारा सिर्फ सियासी है। (Bureau) क्योंकि वाकई अगर अखिलेश को पीडीए की फ़िक्र होती तो अयोध्या की निषाद समाज की बेटी के साथ और कन्नौज की दलित बच्ची के परिजनों के साथ भी अखिलेश का रुख यही होता जैसा मंगेश यादव के परिजनों के साथ कर रहे हैं। सवाल ये कि क्या पीडीए में भी पी यानी पिछड़ा का मतलब अखिलेश के लिए सिर्फ यादव है। फिर अखिलेश के पीडीए को ढोंग क्यों न माना जाए। इस मुद्दे पर चर्चा होगी लेकिन पहले ये रिपोर्ट देखिए
अखिलेश यादव का अहंकार और झूठे नैरेटिव
यूपी में झूठे नैरेटिव के सहारे अखिलेश यादव 37 सीटें क्या पा (Bureau) गये उनका अहंकार चरम पर है। अखिलेश को लगता है कि उनके हाथ अलादीन का चिराग लग गया है जिसे घिसते ही सियासी कामयाबी उनके कदमों में होगी। यही वजह है कि राजनीति में बातों से पलटने और और अपने ही बयानों से उलट बात करने में उन्हें कोई परहेज़ नहीं है। सरकार पर तमाम तरह के आरोप लगाने वाले अखिलेश यादव खुद पर उठे सवालों का इस कदर बेशर्मी से जवाब दे रहे हैं कि शर्म को भी शर्म आ जाए। उदाहरण के लिए मठाधीश और माफिया की तुलना करने वाला बयान।
अखिलेश ने दलील दी है कि उस वक्त जब जूते मारने का नारा (Bureau) दिया गया तब बीजेपी के लोग कहां थे। ये बोलते हुए अखिलेश भूल गए कि इसी नारे के साथ उनके पिताश्री भी थे उस दौर में, जब इसी नारे के साथ एक और नारा दिया गया था कि मिले मुलायम कांशीराम हवा में उड़ गए जय श्री राम।
राजनीतिक बेशर्मी और अतीत की सच्चाई
कहते हैं कि अतीत को झुठलाकर सियासत करना क्षणिक फायदा तो देता है लेकिन लम्बे समय के लिए इसका असर नकारात्मक ही होता है। 1993 में इस नारेबाज़ी का असर ये हुआ कि 2007 में पहली बार मायावती को पूर्ण बहुमत हासिल हुआ और 2012 में सपा को। दोनों को अपने अपने राजनीतिक जीवन में पहली और आखिरी बार ये मौका मिला। बीच के सालों में दोनों ने ही बैसाखी पर ही सरकार चलाई।
ऐसे में अगर अखिलेश को गलतफहमी है कि उस नारे का असर नहीं हुआ तो उनकी बुद्धि पर अफसोस ही किया जा सकता है। अब एक बार फिर से अखिलेश वही पुरानी वाली राजनीति खेल रहे हैं। अखिलेश को लगता है कि जाति वाली काठ की हांडी को वो बार बार चढ़ा पाएंगे लेकिन सब जतन करने के बाद भी अखिलेश अपने एमवाई फैक्टर को भूल नहीं पा रहे।
पीडीए का झुनझुना और राजनीतिक वास्तविकता
जरा कल्पना करिए कि क्या इससे भी बड़ी राजनीतिक बेशर्मी कुछ हो सकती है कि कोई नेता खुद की तय की गई लकीर को ही मानने से इंकार कर दे। लोकसभा चुनाव में जब अखिलेश ने पीडीए का नारा दिया था तो इसमें पिछड़ा दलित और (Bureau) अल्पसंख्यक समुदाय के हित की बात की गई थी। लेकिन अब जबकि चुनाव खत्म हो चुका है तो अखिलेश को पीडीए में पी यानी पिछड़ा में भी सिर्फ यादव यानी मंगेश यादव और नवाब सिंह यादव का हित दिखाई दे रहा है तो ए यानी अल्पसंख्यक मतलब मोईद खान दिख रहा है। उपर से सरकारी कार्रवाई में मठाधीश में माफिया दिख रहा है। जबकि असली माफिया मुख़्तार और अतीक जैसों को किसने पाला ये नहीं दिख रहा।
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टीपू भैया की राजनीति और पीडीए की पोल
तो टीपू भैया जिस गूगल में मठाधीश का मतलब तलाशने की सलाह (Bureau) आप लोगों को दे रहे हैं वो लोग गूगल पर कारसेवकों पर गोली चलाने की घटना की डिटेल भी तलाश लेंगे, बसपा से मौकापरस्त गठबंधन की वजह भी तलाश लेंगे, आपने अपने पिता से मुगलिया अंदाज में सत्ता कैसे छीन ली, वो भी तलाश कर लेंगे। रही बात आपकी तो पीडीए का झुनझुना जो लोकसभा चुनाव में आपने बजाया था। आपकी हरकतें ही उसकी पोल खोल रही है। दो चार सीटें ज्यादा मिल गई तो जमीन मत छोड़िए और अपराधियों को खुलेआम समर्थन मत करिए।