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परमाणु बम से भी ज्यादा शक्तिशाली थे कर्ण के ये अस्त्र, जानिए अंगराज को कैसे मिला था विजय धनुष

अंगराज कर्ण एक महान योद्धा थे, जिनके पास अस्त्र-शस्त्र का भंडार था, उनके पास विजय धनुष था, जिसकी काट किसी के पास नहीं थी।

Vinod by Vinod
February 18, 2025
in Latest News, धर्म, राष्ट्रीय
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परमाणु बम से भी ज्यादा शक्तिशाली थे कर्ण के ये अस्त्र, जानिए अंगराज को कैसे मिला था विजय धनुष
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नई दिल्ली धर्म ऑनलाइन डेस्क। महाभारत काल का वो महान योद्धा, जिसके पास परमाणु बम से भी शक्तिशादी शस्त्र थे। महारथी ने अपनी कठोर तपस्या के बल पर विजय धनुष को हासिल किया, जिससे निकलने वाले बाणों की तोड़ उस वक्त किसी दूसरे अन्य योद्धाओं के पास नहीं हुआ करती थी। वह धनुषधारी जहां युद्ध कला में दक्ष था तो वहीं उसकी गिनती श्रेष्ठ दानवीरों में आज भी होती है। हां हम बात कर रहे हैं द्धापर युग के महान योद्धा, दानवीर कर्ण के बारे में ।

जो परमाणु बम से भी ज्यादा शक्तिशाली थे

द्धापर युग के महान पात्र होने के बावजूद बलशाली कर्ण को जीवन में त्रासदियों से गुजरना पड़ा था। जन्म से लेकर मृत्यु तक ईश्वर ने हर वक्त कर्ण की परीक्षा ली, बावजूद अंगराज डरे नहीं, बल्कि निडर होकर ़़त्रासदियों से मुकाबला किया। जब महाभारत का युद्ध शुरू हुआ तब भगवान श्रीकृष्ण को कर्ण के बल के बारे में जानकारी थी। अतः कूटनीति चाल से बलशाली कर्ण को युद्ध के मैदान में परास्त किया। कर्ण के पास विजय धनुष के अलावा एक से बड़कर एक अस्त्र थे, जो परमाणु बम से भी ज्यादा शक्तिशाली थे।

विश्वकर्मा जी ने विजय धनुष का किया था निर्माण

जानकार बताते हैं कि तारकासुर के पुत्रों का वध करने के लिए विश्वकर्मा जी ने विजय धनुष का निर्माण किया। उस समय भगवान शिव ने विजय धनुष से अपना अस्त्र पशुपतास्त्र चलकर तारकासुर के तीनों पुत्रों और उनके नगरों को नष्ट कर दिया। इसके बाद तीनों लोकों में शांति और धर्म की पुनः स्थापना हुई। राक्षसों का वध करने के बाद भगवान शिव ने विजय धनुष स्वर्ग के देवता इंद्र को सौंप दिया। इसके बाद द्वापर युग के समय में भगवान परशुराम ने भगवान शिव की कठिन तपस्या की।

अपना विजय धनुष बलशाली कर्ण को दिया

भगवान शिव ने परशुराम जी को दर्शन दिए। परशुराम जी ने भगवान शिव से वरदान में विजय धनुष प्राप्त करने की इच्छा जताई। उस समय स्वर्ग नरेश इंद्र से विजय धनुष लेकर भगवान शिव ने परशुराम जी को दिया। द्धापर युग में कर्ण ने परशुराज जी से शिक्षा-दीक्षा ली। कर्ण के पराक्रम को देख भगवान परशुराम ने अपना विजय धनुष बलशाली कर्ण को दिया था। वेदव्यास द्वारा रचित महाभारत काव्य में विजय धनुष की महिमा विस्तारपूर्वक है। जिसमें बताया गया है कि जब तक बलशाली कर्ण के हाथों में विजय धनुष था, तब तक कोई योद्धा कर्ण को परास्त नहीं कर सकता था।

किसी भी अस्त्र और शस्त्र से काटा नहीं जा सकता

महाभारत युद्ध के दौरान इस धनुष के बल से कर्ण अपने प्रतिद्व्न्दी अर्जुन के रथ को पीछे धकलने में सफल होते थे। जबकि, अर्जुन के रथ पर स्वयं कृष्ण जी और हनुमान जी विराजमान थे। इस धनुष के बारे में ऐसा भी कहा जाता है कि विजय धनुष को किसी भी अस्त्र और शस्त्र से काटा नहीं जा सकता था। भगवान शिव का शस्त्र पशुपतास्त्र भी विजय धनुष से बने घेरे को भेद नहीं सकता था। जगत के पालनहार भगवान श्रीकृष्ण ने कूटनीति चाल चलकर बलशाली कर्ण को युद्ध में हराया था। कहा जाता है कि महाराष्ट्र में ये धनुष अब भी है, जिसकी तेज रोशनी के देखे जाने का दावा किया जाता है।

कोई भी योद्धा तुमसे जीत नहीं पाएगा

कर्ण के धनुष विजय की बात करें, तो विजय धनुष को धारण करने की वजह से कर्ण को विजयधारी भी कहा जाता था। कर्ण के गांडीव को कोई खंडित नहीं कर सकता था। कर्ण का विजय धनुष मंत्रों से से इस प्रकार अभिमंत्रित था कि यह धनुष जिस भी योद्धा के हाथ में होता था, उसके चारों तरफ अभेद घेरा बना देता था। कर्ण को उनके धनुष विजय के साथ नहीं मारा जा सकता था। कर्ण का ये धनुष भी एक दिव्यधनुष था। भगवान परशुराम ने कर्ण से कहा, हे वत्स! मै दिया हुआ श्राप तो वापस नहीं ले सकता लेकिन मैं तुम्हे एक धनुष रूपी कवच देता हूं. जब तक ये धनुष तुम्हारे हाथों में रहेगा तब तक तीनों लोकों का कोई भी योद्धा तुमसे जीत नहीं पाएगा।

मेरा विष उसे जीने न देगा

महाभारत युद्ध के सत्रहवें दिन अर्जुन और कर्ण के बीच युद्ध चल रहा था। तभी कर्ण ने एक बाण अर्जुन पर चलाया जो साधारण बाण से अलग था। इस बाण को अर्जुन की ओर आता देख भगवान श्री कृष्ण समझ गए कि वो बाण नहीं बाण रूपी अश्वसेन नाग है। तब उन्होंने अर्जुन को बचाने के लिए अपने पैर से रथ को दबा दिया। भगवान श्री कृष्ण के ऐसा करने से रथ के पहिये जमीन में धंस गए। साथ ही रथ के घोड़े भी झुक गए। तब वो बाण रूपी अश्वसेन अर्जुन की जगह अर्जुन के मुकुट पर जा लगा। वार के खाली जाने के बाद अश्वसेन कर्ण की तरकश में वापिस आ गया और अपने वास्तविक रूप में आकर कर्ण से बोला, हे अंगराज इस बार ज्यादा सावधानी से संग्राम करना। इस बार अर्जुन का वध होना ही चाहिए। मेरा विष उसे जीने न देगा।

लेकिन मैं किसी तरह बच गया

तब कर्ण ने उससे पूछा कि, आप कौन हैं और अर्जुन को क्यों मरना चाहते हैं?। तब अश्वसेन ने कहा, मैं नागराज तक्षक का पुत्र अश्वसेन हूं। मैं और मेरे माता-पिता खांडव वन में रहा करते थे। एक बार अर्जुन ने उस वन में आग लगा दी जिसके बाद मैं और मेरी माता आग में फंस गए। जिस समय वन में आग लगी उस समय मेरे पिता नागराज तक्षक वहां नहीं थे। मुझे आग में फंसा हुआ देख मेरी माता मुझको निगल गई और मुझको लेकर उड़ चली परन्तु अर्जुन ने फिर मेरी माता को अपने बाण से मार गिराया। लेकिन मैं किसी तरह बच गया।

अपनी ही नीति से युद्ध लड़ने दीजिए

जब मुझे ये बात पता चली कि मेरी माता को अर्जुन ने मारा है। तभी से मैं अर्जुन से बदला लेना चाहता हूं और इसी कारण आज मैं बाण का रूप धारण कर आपकी तरकश में आ घुसा। इसके बाद कर्ण ने उसकी सहायता के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए कहा हे अश्वसेन मुझे अपनी ही नीति से युद्ध लड़ने दीजिए। आपकी अनीति युक्त सहायता लेने से अच्छा मुझे हारना स्वीकार है। ये शब्द सुनने के बाद कालसर्प कर्ण की निति, निष्ठता को सरहाता हुआ वहां से वापस लौट गया।

कवच कुण्डल दान में दे दिया

ये तो सभी जानते हैं कि कर्ण जैसा योद्धा अपनी दान वीरता के लिए जाना जाता है। इसी दान वीरता के फलस्वरुप उसे इंद्र की वसावी शक्ति प्राप्त हुई थी। ये एक ऐसा अस्त्र था जिसे कोई भी अस्त्र काट नहीं सकता था। दरसल, युद्ध के निश्चित हो जाने के बाद इंद्र देव को अर्जुन की चिंता सताने लगी कि कर्ण के कवच कुण्डल रहते मेरा पुत्र उसे परास्त कैसे कर पाएगा। क्यूंकि वो जानते थे कि सूर्य देव का दिया हुआ कवच कुण्डल जब तक कर्ण के पास है तब तक उसे कोई नहीं हरा सकता। इसलिए इंद्रदेव ने छल का सहारा लिया और एक दिन कर्ण जब सुबह के समय सूर्य देव को जल अर्पित कर रहे थे। तब इंद्र देव ब्राह्मण का वेश बनाकर उसके पास पहुंचे और कर्ण से उसका दिव्य कवच कुण्डल मांग लिया। तब कर्ण ने इंद्र को अपना कवच कुण्डल दान में दे दिया।

पनी वसावी शक्ति भी देता हूं

तब इंद्र देव ने कहा कि हे कर्ण! तुम महान हो, इस दुनिया में आज तक तुमसे बड़ा दानी न कभी हुआ है और न पृथ्वी के अंत काल तक कोई होगा। आज के बाद महा दानवीर कर्ण नाम से तुम जाने जाओगे। इसके अलावा मैं तुम्हे अपनी वसावी शक्ति भी देता हूं। इसका इस्तेमाल तुम सिर्फ एक बार कर सकोगे। इसका जिस किसी पर संदान करोगे। उसे इस ब्रम्हांड की कोई भी शक्ति नहीं बचा सकेगी और इसके बाद देवराज वहां से अंतर्ध्यान हो गए। जब महाभारत युद्ध शुरू हुआ तो कर्ण ने अपनी ये शक्ति अर्जुन के लिए बचा के रखी थी लेकिन भगवान श्री कृष्ण ने भीम और हिडिम्भा के पुत्र घटोत्कच को युद्ध में शामिल कर कर्ण को इंद्र की दी हुई वसावी शक्ति को चलाने पर विवश कर दिया।

कर्ण के हाथ में वो विजय धनुष नहीं था

इन तीनों शक्तियों के अलावा कर्ण के पास अग्नेयास्त्र, पाशुपतास्त्र, रुद्रास्त्र, ब्रम्हास्त्र, ब्रम्हशिरास्त्रा, ब्रम्हाण्ड अस्त्र, भार्गव अस्त्र, गरुड़ अस्त्र, नागास्त्र और नागपाश अस्त्र और भी कई दिव्य अस्त्र थे, जिसे मंत्रों से प्रकट कर संदान किया जा सकता था। इन अस्त्रों को चलाने के लिए महारथी कर्ण अपने विजय धनुष का इस्तेमाल किया करते थे। महाभारत युद्ध में जिस समय अर्जुन ने कर्ण का वध किया उस समय कर्ण के हाथ में वो विजय धनुष नहीं था। अगर उस समय उनके हाथ में वो धनुष होता तो अर्जुन कभी भी कर्ण का वध नहीं कर पाते।

Tags: Angraj Karnagreat warrior KarnaKarna had victory bowLord Shri Krishnastory of Karnawar of Mahabharata
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