जमानत पर जश्न, इंसाफ शर्मसार: Haveri gangrape case में कोर्ट, सरकार और पुलिस सब नाकाम… न्याय नहीं, हुआ नाटक

हावेरी गैंगरेप केस में जमानत पर रिहा आरोपियों ने जुलूस निकालकर कानून का मखौल उड़ाया। चलती कार की छत पर खड़े होकर जश्न मनाया गया, जबकि कोर्ट, पुलिस और राज्य सरकार मूकदर्शक बनी रहीं।

Haveri gangrape case

Haveri gangrape case: कर्नाटक के हावेरी में गैंगरेप के आरोपियों द्वारा निकाले गए विजय जुलूस ने देश की न्यायिक, पुलिस और सरकारी प्रणाली की पोल खोल दी है। सात आरोपियों को एक 26 वर्षीय महिला से सामूहिक बलात्कार के मामले में गिरफ्तार किया गया था, लेकिन जब उन्हें जमानत मिली, तो उन्होंने जश्न मनाते हुए एक जुलूस निकाला, जिसमें चलती कार की छत पर खड़े होकर नारेबाज़ी की गई और मोटरसाइकिलों का काफ़िला पीछे चल रहा था। यह दृश्य न सिर्फ पीड़िता की अस्मिता पर हमला था, बल्कि न्याय की पूरी प्रक्रिया का सार्वजनिक अपमान भी।

इस शर्मनाक जुलूस का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया, जिसमें साफ़ देखा गया कि कैसे आरोपी निडर होकर कानून की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं। कोर्ट, पुलिस और राज्य सरकार—तीनों की नाकामी इस पूरे मामले में साफ नज़र आती है। कोर्ट ने केवल इस आधार पर आरोपियों को जमानत दे दी कि पीड़िता उन्हें पहचान नहीं पाई। सवाल ये है कि जब पीड़िता को जंगल में खींचकर सामूहिक बलात्कार किया गया था, तो वह कैसे सदमे से उबरकर अपराधियों को पहचानने की स्थिति में होती?

राज्य सरकार ने अब तक न इस Haveri  जुलूस पर कोई टिप्पणी की है, न ही इसे उकसाने वालों पर कोई सख्त कार्रवाई की। क्या यही “कर्नाटक मॉडल” है? जहां बलात्कार के आरोपियों को नायक की तरह पेश किया जाता है? पुलिस की निष्क्रियता भी उतनी ही शर्मनाक है—जिस  Haveri पुलिस को इस जुलूस को रोकना था, वह मूकदर्शक बनी रही। क्या उन्हें इस जुलूस की सूचना नहीं थी, या जानबूझकर अनदेखी की गई?

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इस मामले में नैतिक पुलिसिंग और सांप्रदायिक तत्व भी जुड़ते हैं, क्योंकि पीड़िता एक अंतरधार्मिक रिश्ते में थी। क्या यह भी कारण था कि जांच को कमजोर किया गया? क्या न्याय प्रणाली केवल उन्हीं मामलों में सख्त होती है, जहां सत्ता को असुविधा हो?

सोशल मीडिया पर गुस्सा फूट पड़ा है—लोगों ने कोर्ट की भूमिका, पुलिस की चुप्पी और सरकार की बेरुखी पर तीखी आलोचना की है। वीडियो में लिखा “वापस आओ” जैसे शब्द पीड़िता की तकलीफ का मज़ाक उड़ाते हैं और ये जश्न न्याय की हार का प्रतीक बन चुका है।

अगर यही सिलसिला चलता रहा, तो बलात्कार के मामलों में पीड़िता नहीं, बल्कि आरोपी विजेता की तरह पेश किए जाते रहेंगे। कर्नाटक की सरकार, न्यायपालिका और पुलिस—तीनों को जवाब देना होगा: क्या न्याय बिक चुका है?

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