Air Pollution: दिल्ली सहित देश के बड़े शहरों की हवा में लगातार बढ़ता प्रदूषण सिर्फ पर्यावरण का मुद्दा नहीं रह गया है, बल्कि यह जनता के स्वास्थ्य और जीवन की गुणवत्ता पर गंभीर संकट बन चुका है। इसके बावजूद न तो सरकार पूरी गंभीरता से इसे कानूनी और प्रबंधन स्तर पर नियंत्रित कर पा रही है, न ही जनता अपने हिस्से की जिम्मेदारी ठीक से निभा रही है। इस संयुक्त निकम्मापन ने हमें असहनीय सांस लेने पर मजबूर कर दिया है।
सरकार की ओर से प्रदूषण नियंत्रण के लिए अनेक योजनाएं बनाई जाती हैं, जैसे कि वाहनों से उत्सर्जन नियंत्रण, पराली जलाने पर रोक और उद्योगों पर सख्ती। लेकिन इन नियमों का सख्ती से पालन और क्रियान्वयन अक्सर कमजोर दिखता है। सत्ता पक्ष की प्राथमिकताएं चुनावी रणनीतियों और सत्ता बचाने पर ज्यादा केंद्रित होती हैं, जिससे स्वच्छ हवा के मुद्दे को प्राथमिकता नहीं मिल पाती। तीन-चार महीने की सर्दियों में जब प्रदूषण चरम पर होता है, तब भी प्रभावी रोकथाम और ठोस नीति कदम नहीं उठाए जाते।
वहीं, जनता की बात करें तो वह खुद भी अपने स्तर पर प्रदूषण बढ़ाने में योगदान दे रही है। बिना जागरूकता के लोग प्रदूषित ईंधन का उपयोग करते हैं, अनावश्यक यात्रा करते हैं, और सामाजिक जिम्मेदारी की कमी के चलते कूड़ा-करकट सड़क पर वहीं फेंक देते हैं। स्वच्छता और पर्यावरण संरक्षण के लिए जन आंदोलन और जागरूकता अभियान लंबित या अधूरे रह जाते हैं।
सवाल उठता है—क्या हम सब मिलकर अपनी सांसों को जहरीला बनाने के लिए इतना बेरहम बने हुए हैं? जबकि स्वच्छ हवा एक मौलिक आवश्यकता और अधिकार है, जिस पर अब तक हम अनदेखी कर रहे हैं। सरकार और जनता दोनों को एकजुट होकर प्रदूषण पर वास्तविक नियंत्रण, सख्त कार्रवाई और व्यवहार में विनम्रता दिखानी होगी।
वरना, ऐसे निक्कमापन के चलते हमारा भविष्य “बिना फेफड़ों के” जीने जैसा हो जाएगा। इसे रोकना आज की सबसे बड़ी चुनौती है।
