Jagannath Rath Yatra and the Story of Devi Gundicha: पुरी में हर साल निकलने वाली भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा सिर्फ एक धार्मिक उत्सव नहीं, बल्कि एक भावनात्मक जुड़ाव है, जिसका रिश्ता रानी गुंडिचा की भक्ति से जुड़ा है। पुरी के श्रीजगन्नाथ मंदिर से हर साल आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को निकलने वाली रथ यात्रा की शुरुआत बहुत खास तरीके से होती है। भगवान जगन्नाथ, भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा की मूर्तियों को मंदिर से बाहर सिंहद्वार तक लाया जाता है। इस प्रक्रिया को ‘पहांडी’ कहा जाता है, जिसमें भक्तगण उन्हें कंधों पर झुलाकर प्रेमपूर्वक रथ तक पहुंचाते हैं। फिर रथों को खींचकर तीनों को पुरी के गुंडिचा मंदिर, यानी भगवान की मौसी के घर ले जाया जाता है।
देवी गुंडिचा कैसे बनीं भगवान की मौसी
देवी गुंडिचा कोई साधारण महिला नहीं थीं, बल्कि राजा इंद्रद्युम्न की धर्मपत्नी थीं। उन्होंने अपने पति के ब्रह्मलोक यात्रा पर जाने के बाद तपस्या का व्रत लिया और समाधि में चली गईं। इस बीच सदियों बीत गईं और जब राजा ब्रह्मा को लेकर वापस लौटे तो पुरी पूरी तरह बदल चुका था। श्रीमंदिर रेत में दब गया था और एक नए राजा गालु माधव का शासन था।
रेत में दबा मंदिर और देवी का जागरण
तूफान के चलते मंदिर की संरचना एक बार फिर बाहर आई। राजा इंद्रद्युम्न ने मंदिर का गर्भगृह खोज निकाला और ब्रह्मा जी के साथ मिलकर श्रीजगन्नाथ की प्राण प्रतिष्ठा करवाई। उसी समय रानी गुंडिचा की समाधि टूटी और उन्होंने खुद को एक नई पीढ़ी के लोगों से घिरा पाया, जो उन्हें देवी मानते थे।
भगवान ने क्यों कहा ‘मौसी’?
जब भगवान प्रकट हुए तो उन्होंने रानी गुंडिचा की तपस्या और मां जैसी सेवा को देखते हुए उन्हें ‘मौसी’ का दर्जा दिया और कहा कि “मैं हर साल आपसे मिलने आऊंगा।” यही वजह है कि हर वर्ष रथ यात्रा में भगवान जगन्नाथ अपने भाई और बहन के साथ अपनी मौसी के घर जाते हैं, यानी गुंडिचा मंदिर।
रथयात्रा की विशेष परंपराएं
रथयात्रा के दौरान पुरी के राजा स्वयं सोने की झाड़ू से रथ के मार्ग की सफाई करते हैं, जिसे ‘छेरा पहरा’ कहा जाता है। यह सेवा भगवान के प्रति समर्पण और विनम्रता का प्रतीक मानी जाती है।
आज भी जीवित है वह परंपरा
आज भी पुरी मंदिर में पूजा करने वाले दइतापति सेवक, विश्ववसु, विद्यापति और ललिता के वंशज ही होते हैं। रथ निर्माण से लेकर मूर्ति निर्माण तक के काम भी उन्हीं की पीढ़ियां करती हैं। यही वजह है कि गुंडिचा मंदिर को तीर्थ और शक्तिपीठ की मान्यता प्राप्त है।
रथयात्रा सिर्फ एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि प्रेम, भक्ति और पारिवारिक रिश्तों की मिसाल है। देवी गुंडिचा की कहानी हमें यह सिखाती है कि सच्ची भक्ति समय की सीमाओं को पार कर देती है।
डिस्क्लेमर: यह लेख धार्मिक कथाओं और परंपराओं पर आधारित है। News1India इसकी ऐतिहासिक अथवा वैज्ञानिक पुष्टि नहीं करता।यह लेख श्रद्धा और जानकारी के उद्देश्य से प्रस्तुत किया गया है।