मुहर्रम पर मातम मनाते है शिया मुसलमान, जानिए रोज-ए-आशुरा के दिन क्यों निकाला जाता है ताजिए

इस्लामिक कैलेंडर अनुसार मुहर्रम का पहला महीना होता है। इस्लाम धर्म में मुहर्रम का महीना मुसलमानों के लिए बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। यह महिना 31 जुलाई 2022 से शुरू हुआ है। इसे शिया समुदाय के लोग अधिक मानते है। मुहर्रम के 10वें दिन रोज-ए-आशुरा मनाया जाता है। आज यानी 9 जुलाई को रोज-ए-आशुरा है। इस दिन मुस्लिम लोग ताजिए निकालते है।

आपको बता दें ये महिना शिया मुस्लिम मुहर्रम को गम का महीना मानते हैं। दरअसल आज से करीब 1400 साल पहले कर्बला में इंसाफ की जंग हुई थी। इस जंग में पैगंबर हजरत मोहम्‍मद के नवासे इमाम हुसैन अपने 72 साथियों के साथ शहीद हो गए थे। इस्लाम की रक्षा के लिए उन्होंने खुद को कुर्बान कर दिया था।

मुहर्रम की 10 तारीख को निकालते है ताजिए

यह घटना मुहर्रम के 10वें दिन यानी रोज-ए-आशुरा के दिन हुई थी। इसी कारण मुहर्रम की 10 तारीख को ताजिए निकाले जाते हैं।

इसी कारण शिया समुदाय के लोग इस दिन मातम मनाते हैं। वह मजलिस पढ़ते हैं और काले रंग के कपड़े पहनकर शोक व्यक्त करते हैं। साथ ही इस दिन शिया समुदाय के लोग भूखे-प्यासे रहकर शोक व्यक्त करते हैं। ऐसा मान्या है कि इमाम हुसैन और उनके काफिले के लोगों को भी भूखा रखा गया था और उन्हें इसी हालत में शहीद किया गया था। जबकि सुन्नी समुदाय के लोग रोजा-नमाज करके अपना दुख जाहिर करते हैं।

दरअसल करीब 1400 साल पहले हजरत मुहम्मद साहब की मौत के बाद उनके उत्तराधिकार को लेकर झगड़े शुरू हो गए। अमीर मुआविया ने पांचवें उत्तराधिकारी के रूप में अपने बेटे यजीद को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। उनका शासनकाल सबसे बदतर माना जाता था। लेकिन मोहम्मद साहब के परिवार ने यजीद को शासक के रूप में मान्यता देने से इनकार कर दिया। इस कारण हजरत मोहम्मद के नवासे हुसैन और यजीद के बीच जंग शुरू हो गई।

यजीद खुद को खलीफा मानता था

जानकारी के मुताबिक यजीद खुद को खलीफा मानता था और उसने हुसैन पर भी अपने मुताबिक चलने का दबाव बनाया। ताकि इस्लाम पर उसका कब्जा हो जाए। लेकिन हुसैन ने उसका हुक्म मानने से इनकार कर दिया।

इसी बीच मुहर्रम की दूसरी तारीख को हुसैन अपने लोगों के साथ कर्बला पहुंच गए। यजीद ने मुहर्रम की 7 तारीख को हुक्म थोपने के इरादे से हुसैन और उनके साथियों का पानी बंद कर दिया। लेकिन यजीद बेहद ताकतवर था। इसके बावजूद हुसैन ने उसके सामने घुटने नहीं टेके। यजीद का जुल्म बढ़ता देख हुसैन ने अपने साथियों से जान बचाकर भागने को कहा क्योंकि वो नहीं चाहते थे कि उनके किसी साथी को यजीद का जुल्म सहना पड़े।

हालांकि उनके किसी साथी ने हुसैन का साथ नहीं छोड़ा। आखिरकार मुहर्रम की 10 तारीख को यजीद की फौज ने हुसैन के लश्कर पर हमला बोल दिया। इस जंग में 72 लोगों की मौत हुई। खलीफा बनने की चाहत में यजीद ने हुसैन और उनके बेटे-भतीजे को भी मौत के घाट उतार दिया।

ऐसा कहते हैं कि मुहर्रम की 10 तारीख को इस्लाम धर्म के लोग अलग-अलग तरीकों से अपना दुख जाहिर करते हैं। शिया मुस्लिम या हुसैन-या हुसैन कहकर अपने जिस्म का खून बहाते हैं तो वहीं सुन्नी मुस्लिम नमाज पढ़कर अल्लाह की इबादत करते हैं।

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