बिलासपुर। पुरातात्विक और आध्यात्मिक नगरी कहे जाने वाली मल्हार में मां डिंडेश्वरी आस्था का प्रतीक व प्रमुख केंद्र है। लोग दूर दराज से माता रानी के दर्शनों के लिए यहां आते है। मां शक्ति पार्वती के रूप में विराजमान डिंडेश्वरी मां के इस मंदिर में लोग अपनी मनोकामना को लेकर आते हैं। वहीं यहां नवरात्रि में विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है। मान्यता के अनुसार इन दिनों में मां शक्ति के स्वरूप की पूजा- अर्चना करना विशेष फलदायी होता है। मां डिंडेश्वरी के मंदिर में घट स्थापना के साथ जौ या जवारे की स्थापना नवरात्रि के पहले दिन से ही जाती है।
जौ यानी अन्न को ब्रह्मा जी और अन्नपूर्णा देवी का प्रतीक माना गया है। इसलिए सर्वप्रथम उनकी पूजा की जाती है। इस मंदिर में ज्योति कलश रखा हुआ है जिसकी ज्योति से अज्ञान रूपी अंधकार को दूर हो जाता है। आपको बता दें कि इस प्राचीन मंदिर में दुर्लभ शुद्ध काले ग्रेनाइट से बनी मां डिंडनेश्वरी की प्रतिमा विराजमान है।
10 वीं-11 वीं ई. में हुआ था मंदिर का निर्माण
ऐसी मान्यता है कि माता रानी अपने दरबार से किसी को भी खाली हाथ नहीं जाने देती। इसलिए यहां स्थानीय लोगों के अलावा पूरे छत्तीसगढ़ प्रदेश व देशभर से लोग देवी के दर्शन के लिए पहुंचते हैं। कुंवारी कन्या इच्छित वर के लिए मां की आराधना करती हैं तो वहीं सुहागिने पति की लंबी उम्र के लिए देवी की पूजा करती है।
बिलासपुर से करीब 35 किमी दूर पर स्थित मस्तूरी विकासखंड के जोन्धरा मार्ग पर मौजूद मल्हार गांव है जो डिंडेश्वरी देवी के कारण प्रसिद्ध है। ऐसा कहा जाता है कि देवी के इस मंदिर का निर्माण 10 वीं-11 वीं ई. में हुआ था।
प्रतिमा से झलकती है ये तीन आभा
वहीं मंदिर के पुजारी कमल अवस्थी ने बताया कि देवी मां की प्रतिमा की 4 फीट की ऊंचाई है। जो गहरे काले रंग की ग्रेनाइट पत्थर से निर्मित पद्मासन मुद्रा में तपस्या करती हुई। राजकन्या होने का एहसास कराती है। तो सिर के पीछे स्थित प्रभामंडल होने से उन्हें देवी के रूप में प्रकट करती है। सिर पर मुकुट, भुजाओं में बाजूबंद, पैरों में पायल, कानों में कुंडल, गले में हार, ललाट में बिंदी आदि सोलह श्रृंगार की हुई दिव्य अलौकिक प्रतिमा हैं। जिसे ध्यान से देखें तो सुबह बालिका दोपहर में युवती और रात्रि में महिला की आभा लिए स्पष्ट प्रतीत होती है।
पादपृष्ठ में दोनों जानुओं के नीचे सिंह निर्मित होने से इसे कुमारी यानी पार्वती की, शिव को पति रूप में प्राप्त करने की पार्वती की प्रतिमा प्रतीत होती है। जिसने भगवान शिव को पति रूप में पाने कठोर तपस्या की थी। इसीलिए यह मान्यता है कि कोई भी युवती अपने लिए इच्छित वर की प्राप्त करना चाहती हैं वो माता रानी के दर्शन और मनौती बाधती हैं। साथ ही मनोकामना ज्योति कलश प्रज्वलित कराती हैं।
मां डिंडेश्वरी की मान्यता
मान्यता है कि डिंडेश्वरी नाम महाभारत में उल्लेखित दुर्गा के सहस्त्रों नामों में से एक है। जो अपभ्रंश रूप में प्रसिद्ध हो गया है। ग्रामीण अंचल में कुँवारे लड़कों को डड़वा या डीडवा कहा जाता है। उसी तरह कुँवारी लड़कियों को डिड़वी, डिंडिन, या डिंडन कहा जाता है। मल्हार में यह निषाद समाज में और अन्य समाजों में प्रचलित शब्द है और चूँकि इस देवी का निषाद समाज द्वारा जीर्णोद्धार कराया गया था, तो उनकी आराध्या देवी शिव को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए तपस्विनी रूप में यह पार्वती की प्रतिमा डिंडेश्वरी रूप में प्रसिद्ध हो गयी। तपोमुद्रा में यह स्पष्ट है कि यह तपस्यारत पार्वती की प्रतिमा है । यद्यपि पार्वती जी की तपोभूमि हिमालय है। फिर भी शिव की आराधना के निमित्त या किसी-किसी मनौती के अभिप्राय से इस स्थल पर तपस्विनी एवं महामाया पार्वती की मूर्ति की स्थापना की गयी होगी।
नगर का नाम मल्हार क्यों पड़ा
पौराणिक कहानी की बात करें तो वेदों के विद्वानों के अनुसार पुराणों में वर्णित मल्लासुर दानव का संहार शिव ने इसी स्थान पर किया था। इसके कारण उनका नाम मल्हार, मलार, मल्लाल, और मल्लानय प्रचलित हुआ। जानकारी के अनुसार कलचुरी पृथ्वी देव द्वितीय के शिलालेख में इसका प्राचीन नाम मल्लाल दिया है। जबकि 1167 ईसवी का अन्य कलचुरी शिलालेख में इसका नाम मल्लापट्टन हैं। मल्लाल संभवत मल्लारी से बना है जो भगवान शिव की एक संज्ञा दी गई थी। अब यह नगर वर्तमान में मल्हार कहलाता है।