विजय शर्मा , वरिष्ठ पत्रकार: तकनीक किसी एक वर्ग के लिए नहीं, बल्कि सबके लिए समान अवसर लेकर आती है—कम से कम सिद्धांत रूप में। लेकिन जब बात भारत के गांवों की आती है, तो यह सिद्धांत हकीकत से टकराता नज़र आता है। डिजिटल तकनीक गांवों तक तो पहुँची है, लेकिन बराबरी के साथ नहीं। आखिर एक क्लिक की दूरी, गांवों के लिए भी तो जरूरी है । लेकिनधीरे-धीरे यह सुविधा डिजिटल सशक्तिकरण से फिसलकर डिजिटल भेदभाव और डिजिटल असमानता का रूप लेती जा रही है । नतीजा यह है किUF स्मार्टफोन के युग में भी हमारे गांव “स्मार्ट” नहीं बन पा रहे।
आज हालात ऐसे हैं कि शहर एक क्लिक में दुनिया से जुड़े हैं, जबकि ज़्यादातर गांव अब भी ऑफलाइन रहने को मजबूर हैं। सवाल उठता है—डिजिटल इंडिया का सपना कैसे पूरा होगा? डिजिटल खाई कैसे पाटी जाएगी? और क्यों आज भी महिलाएं, बुजुर्ग और गरीब तबका डिजिटल क्रांति से बाहर खड़ा है?
तेज़ नेटवर्क, फिर भी धीमी पहुंच
भारत में डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर ने बीते वर्षों में तेज़ी से विस्तार किया है। दावा है कि लगभग 80%आबादी तक 5G कवरेज पहुँच चुका है और सरकार का लक्ष्य 2026 के अंत तक देशभर में पूर्ण 5G कवरेज हासिल करना है। हर एक्टिव स्मार्टफोन पर औसतन 36 GB मासिक डेटा खपत के साथ भारत दुनिया के सबसे बड़े और सबसे तेज़ी से बढ़ते डेटा बाज़ारों में शामिल है।

लेकिन इस चमकदार तस्वीर के पीछे एक कड़वी सच्चाई छिपी है। कई ग्रामीण इलाकों में आज भी बिजली की अनियमित आपूर्ति, कमज़ोर इंटरनेट नेटवर्क या ब्रॉडबैंड की पूरी नामौजूदगी जैसी बुनियादी समस्याएं मौजूद हैं। जहां नेटवर्क उपलब्ध है, वहां भी स्मार्टफोन, डेटा प्लान और डिजिटल डिवाइस कम आय वाले परिवारों की पहुंच से बाहर हैं। यही वजह है कि ग्रामीण और शहरी भारत के बीच डिजिटल दूरी लगातार बढ़ती जा रही है।
कई गांव अब भी ऑफलाइन क्यों?
हालांकि टेलीकॉम कंपनियां दूर-दराज़ के इलाकों में नेटवर्क विस्तार की कोशिश कर रही हैं, फिर भी हकीकत यह है कि हर छह में से एक ग्रामीण परिवार आज भी पूरी तरह ऑफलाइन है। ग्रामीण इलाकों में करीब 16.7% परिवारों के पास इंटरनेट एक्सेस नहीं है, जबकि शहरी क्षेत्रों में यह आंकड़ा लगभग 8.4% है।यह दर्शाता है कि ग्रामीण घरों में इंटरनेट नहीं होने की दर शहरी की तुलना में लगभग दूनी है।
डिजिटल असमानता सिर्फ नेटवर्क तक सीमित नहीं है, बल्कि कौशल और साधनों की कमी भी उतनी ही बड़ी बाधा है। जहां शहरी इलाकों में लगभग 61% लोग डिजिटल रूप से साक्षर हैं, वहीं ग्रामीण भारत में यह आंकड़ा महज़ 25% के आसपास सिमटा हुआ है। स्मार्टफोन स्वामित्व में भी बड़ा अंतर है—शहरों में 74% परिवारों के पास स्मार्टफोन हैं, जबकि गांवों में यह संख्या लगभग 45% ही है।यह आंकड़ा डिजिटल विभाजन और तकनीकी पहुंच के असमान वितरण को दर्शाता है ।
महिलाएं, बुजुर्ग और गरीब: डिजिटल दौड़ से बाहर
डिजिटल खाई का सबसे गहरा असर उन वर्गों पर पड़ता है जिन्हें समाज पहले से ही हाशिये पर रखता आया है—गरीब, महिलाएं, बुजुर्ग और कम शिक्षित लोग। पारंपरिक सामाजिक ढांचे के कारण ग्रामीण महिलाओं की मोबाइल और इंटरनेट तक पहुंच बेहद सीमित है। कुछ राज्यों में हालात और भी चिंताजनक हैं। फोन/स्मार्टफोन तक उनकी पहुँच कम है। एक रिपोर्ट (Comprehensive Modular Survey: Telecom 2025) के अनुसार लगभग 51.6% ग्रामीण महिलाएँ मोबाइल फोन खुद के नाम पर नहीं रखतीं — यानी ओनरशिपबहुत कम है।

अगर मोबाइल फोन खुद के पास नहीं है तो उसके साथ इंटरनेट का उपयोग भी सीमित होता है। उदाहरण के तौर पर बिहार में औसतन 20% से भी कम ग्रामीण महिलाओं के पास स्मार्टफोन या इंटरनेट सुविधा है। यह साफ दिखाता है कि सामाजिक रूढ़ियां और आर्थिक मजबूरियां महिलाओं को डिजिटल दुनिया से कितनी दूर रखती हैं। वहीं बुजुर्गों के लिए नई तकनीक सीखना अक्सर डर और हतोत्साह का कारण बन जाता है।
भाषा भी बन रही है दीवार
Digital inequality की एक बड़ी वजह भाषाई बाधाएं भी हैं। ज़्यादातर डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म, वेबसाइट और एप्लिकेशन (जैसे सरकारी पोर्टल, बैंकिंग ऐप्स, हेल्थ ऐप्स) मुख्य रूप से अंग्रेज़ी या हिंदी में उपलब्ध होते हैंजबकि ग्रामीण इलाकों में लोग अपनी क्षेत्रीय भाषाओं या मातृभाषा में अधिक सहज महसूस करते हैं। स्थानीय भाषा में कंटेंट और सेवाओं की कमी ग्रामीण उपयोगकर्ताओं को डिजिटल प्लेटफॉर्म से जोड़ने में बड़ी रुकावट बनती है।भारत में 22 मान्यता प्राप्त भाषाएँ हैं और कई क्षेत्रीय बोलियाँ भी हैं लेकिन डिजिटल उपकरणों और एप्स में इन भाषाओं का समर्थन अक्सर सीमित या अधूरा होता है।
असर: शिक्षा, स्वास्थ्य और आजीविका पर चोट
इस Digital inequality के नतीजे दूरगामी हैं। छात्र ऑनलाइन शिक्षा से वंचित रह जाते हैं, किसान बाज़ार भाव या ई-एग्रीकल्चर टूल्स तक नहीं पहुँच पाते, और ग्रामीण आबादी टेलीमेडिसिन, डिजिटल बैंकिंग व ई-गवर्नेंस सेवाओं का पूरा लाभ नहीं उठा पाती। डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (DBT) जैसी योजनाएं भी उन तक ठीक से नहीं पहुंच पातीं जो डिजिटल रूप से सशक्त नहीं हैं।
हालांकि डिजिटल इंडिया, भारतनेट, राष्ट्रीय ब्रॉडबैंड मिशन 2.0, ई-सेवा केंद्र, डिजिटल भुगतान और पीएम-वाणी जैसी योजनाओं के तहत 6,25,000 से अधिक गांवों तक कनेक्टिविटी बढ़ाने के प्रयास हो रहे हैं, लेकिन केवल इंफ्रास्ट्रक्चर पर्याप्त नहीं है। डिजिटल जागरूकता और साक्षरता बढ़ाने के लिए ज़मीनी स्तर पर अभी बहुत काम बाकी है।
इस तरहृ भारतीय गांवों में Digital inequality सिर्फ नेटवर्क या टावरों की कमी का नतीजा नहीं है। इसकी जड़ें आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक और लैंगिक असमानताओं में गहराई तक धंसी हुई हैं। इस खाई को पाटने के लिए सस्ते डिजिटल डिवाइस, स्थानीय भाषा में कंटेंट, व्यापक डिजिटल शिक्षा और समावेशी नीतियों की सख्त ज़रूरत है।जब तक डिजिटल तकनीक का लाभ समाज के अंतिम व्यक्ति तक नहीं पहुंचेगा, तब तक यह क्रांति अधूरी ही रहेगी ।



