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बचपन के खेल-खिलौनों कहां खो गए? कैसे आज की डिजिटल दुनिया में बच्चों का बचपन सिमट गया जानिए इसके नुक़सान

पुराने समय के खेल-खिलौनों और जानवरों के साथ होने वाले मनोरंजन अब बच्चों की जिंदगी से गायब हो गए हैं। मोबाइल की दुनिया ने बच्चों से वो बचपन छीन लिया है।

SYED BUSHRA by SYED BUSHRA
May 6, 2025
in Uncategorized
childhood memories and traditional games
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Childhood memories and traditional toys गर्मी की छुट्टियां आते ही बच्चों के चेहरों पर जो रौनक दिखती है, वो किसी त्योहार से कम नहीं होती। लेकिन आजकल इन छुट्टियों में भी बच्चों पर स्कूल का होमवर्क और प्रोजेक्ट का इतना बोझ रहता है कि वो खेल-कूद या मस्ती के पलों का पूरा आनंद नहीं ले पाते।

हमारी पीढ़ी के लोग जब अपनी छुट्टियों की बात करते हैं, तो याद आता है कि कैसे हम बिना किसी झिझक के गली-मोहल्लों में खेलते रहते थे। तब गली में जब कोई बांसुरी बजाता खिलौने वाला आता, तो बच्चे दौड़कर उसके पास चले जाते। हम सब बड़े मजे से कहते थे “आया रे खेल-खिलौने वाला!”

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अब नहीं आते वो खिलौने वाले

पहले गलियों में बंदर, भालू और सांप का खेल दिखाने वाले आते थे। बच्चों के साथ-साथ बड़े भी इन्हें देखने में खूब रुचि लेते थे। मदारी बंदर से शादी, नौकरी, गुस्सा और रूठने जैसे मजेदार खेल करवाता था। भालू की पीठ पर बच्चे बैठते थे, तो खुशी का ठिकाना नहीं रहता था। लेकिन आज ये सब जैसे बीते जमाने की बात हो गई है।

बदलती दुनिया, बदलते खेल

अब खिलौने वाले, बांसुरी बजाने वाले, झुनझुना बेचने वाले लोग गलियों से गायब हो गए हैं। उनकी जगह ले ली है मोबाइल, टैबलेट और वीडियो गेम्स ने। बच्चे अब स्क्रीन में डूबे रहते हैं, जिससे उनका ना केवल शारीरिक विकास रुक रहा है बल्कि समाज से जुड़ाव भी कम हो रहा है।

पहले जब कोई बांसुरी वाला या गुड्डे-गुड़िया बेचने वाला आता था, तो हम उसके पीछे-पीछे भागते थे। यह भागदौड़ हमारे शरीर को तंदुरुस्त रखने में भी मदद करती थी और सांस को नियंत्रित करने वाले खेल जैसे बांसुरी बजाना, सेहत के लिए फायदेमंद होते थे।

जानवरों से मिलने वाली सीख

बंदर और भालू के खेलों से हमें जानवरों के प्रति संवेदना, उनके व्यवहार को समझने और उनसे दोस्ती करने की सीख मिलती थी। जब मदारी बंदर को मनाता था, तो हमें समझ आता था कि गुस्से में किसी को कैसे हंसी-ठिठोली से मनाया जा सकता है। अब बच्चों को ये सब सीखने का मौका ही नहीं मिलता।

गुम होते जा रहे बचपन के रंग

सांप और नेवले की लड़ाई, पक्षियों के खेल, रस्सी पर चलती बच्चियां, मदारी-जमूरे के अभिनय,ये सब अब सिर्फ किस्से बनकर रह गए हैं। बच्चों का बचपन अब मोबाइल की छोटी स्क्रीन में सिमट गया है। आज का बच्चा न खेलता है, न दौड़ता है, और न ही समाज से वैसा जुड़ाव रखता है जैसा पहले हुआ करता था।

Tags: Indian ChildhoodTraditional Games
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