Akhilesh Yadav on Kanshiram: समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव के हालिया दावे ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में हलचल मचा दी है। उन्होंने यह दावा किया कि बीएसपी के संस्थापक कांशीराम ने 1991 में अपनी पहली लोकसभा सीट मुलायम सिंह यादव के समर्थन से जीती थी। यादव का कहना था कि कांशीराम 1991 से पहले चुनावी जीत हासिल नहीं कर पाए थे और यह जीत सपा और बसपा के बीच गठबंधन का परिणाम थी। यह बयान दलित राजनीति, सपा-बसपा गठबंधन और आगामी 2027 के चुनावों में दलित वोट बैंक को लेकर नई चर्चाओं को जन्म दे रहा है। बीएसपी ने इस टिप्पणी को ऐतिहासिक संशोधनवादी करार दिया, जबकि भाजपा ने इसे विपक्षी एकता को कमजोर करने के प्रयास के रूप में देखा।
कांशीराम की 1991 की जीत और सपा-बसपा गठबंधन
कांशीराम, जो बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के संस्थापक थे, ने 1984 में पार्टी की स्थापना की थी, और उनका लक्ष्य दलितों और पिछड़ों के अधिकारों की रक्षा करना था। हालांकि, उनकी चुनावी यात्रा शुरू में संघर्षपूर्ण रही। 1991 में इटावा से सपा-बसपा गठबंधन के तहत कांशीराम ने अपनी पहली लोकसभा सीट जीती। यह जीत मुलायम सिंह यादव के समर्थन के कारण मानी जाती है, क्योंकि सपा ने जसवंतनगर में उम्मीदवार नहीं उतारा था, जिससे दोनों दलों को चुनावी लाभ मिला। इस गठबंधन ने उत्तर प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य में महत्वपूर्ण बदलाव लाए और दोनों पार्टियों ने भाजपा के बढ़ते प्रभाव का मुकाबला करने के लिए मिलकर काम किया।
हालांकि, यह सहयोग लंबे समय तक नहीं चल सका। 1995 में सपा कार्यकर्ताओं द्वारा मायावती पर हमले के बाद दोनों दलों के बीच मतभेद बढ़ गए और गठबंधन टूट गया। फिर भी, कांशीराम की 1991 की जीत ने उन्हें राष्ट्रीय नेता के रूप में स्थापित किया और बसपा को एक मजबूत राजनीतिक ताकत बना दिया।
राजनीतिक दांव, दलित वोट पर जोर
Akhilesh Yadav के बयान का उद्देश्य स्पष्ट था – वह सपा को सामाजिक न्याय का रक्षक के रूप में प्रस्तुत करना चाहते थे, खासकर दलित और पिछड़ी जातियों के बीच। उनका यह बयान दलित मतदाताओं को आकर्षित करने का एक कदम माना जा सकता है, जो पारंपरिक रूप से बीएसपी का समर्थन करते आए हैं। अंबेडकर की प्रतिमा का अनावरण और कांशीराम के संघर्षों को मुलायम सिंह यादव के समर्थन से जोड़ना इस बात का संकेत था कि सपा दलितों के उत्थान के लिए प्रतिबद्ध है। इसके अलावा, यह बयान 2027 के चुनावों में एसपी-बीएसपी गठबंधन को फिर से जिंदा करने के संकेत के रूप में देखा जा सकता है, जैसा कि 1993 में हुआ था।
“इतिहास को विकृत करना”
बीएसपी नेताओं ने Akhilesh Yadav के दावे को नकारते हुए इसे “इतिहास को विकृत करना” करार दिया। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने कहा कि कांशीराम की सफलता उनकी खुद की मेहनत और संघर्ष का परिणाम थी, न कि सपा के समर्थन से। वे इसे कांशीराम की स्वतंत्र राजनीतिक यात्रा के रूप में देखते हैं, और उनका मानना है कि अखिलेश यादव दलितों के संघर्ष को कमजोर करने की कोशिश कर रहे हैं। मायावती ने अभी तक सीधे तौर पर प्रतिक्रिया नहीं दी है, लेकिन उनकी चुप्पी इस बात का संकेत हो सकती है कि पार्टी रणनीतिक रूप से इस मामले पर विचार कर रही है।
सपा-बीएसपी के बीच विभाजन की संभावना
बीजेपी ने Akhilesh Yadav के बयान का फायदा उठाने की कोशिश की है। पार्टी ने इस टिप्पणी को सपा की “वोट बैंक की राजनीति” के रूप में पेश किया है और कहा कि अखिलेश यादव केवल चुनावों के दौरान ही दलितों की याद करते हैं। बीजेपी ने इस विवाद का इस्तेमाल विपक्षी एकता को कमजोर करने के लिए किया है, खासकर सपा-बीएसपी के बीच विभाजन को बढ़ावा देकर। बीजेपी का लक्ष्य दलितों के बीच अपने आधार को मजबूत करना और सपा को अवसरवादी रूप में चित्रित करना है।
2027 के चुनावों में संभावित प्रभाव
Akhilesh Yadav का यह कदम 2027 के चुनावों में सपा की राजनीतिक दिशा तय कर सकता है। अगर दलित मतदाता सपा के प्रति आकर्षित होते हैं, तो यह पार्टी को यूपी में फिर से मजबूती दे सकता है। लेकिन इससे बीएसपी के साथ मतभेद भी बढ़ सकते हैं और गठबंधन की राजनीति पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। इसके अलावा, भाजपा इसका फायदा उठाकर विपक्षी एकता को कमजोर करने में सफल हो सकती है।
अखिलेश यादव की टिप्पणी ने उत्तर प्रदेश की जाति-आधारित राजनीति में नई हलचल पैदा कर दी है। यह बयान दलित मतदाताओं के बीच सपा की स्थिति को पुनः स्थापित करने की कोशिश हो सकती है, लेकिन इसकी सफलता बीएसपी की प्रतिक्रिया और बीजेपी के खिलाफ विपक्षी एकता के प्रयासों पर निर्भर करेगी। जैसे-जैसे 2027 के चुनाव नजदीक आते हैं, यह राजनीतिक तकरार और कांशीराम की विरासत का मुद्दा और भी महत्वपूर्ण हो सकता है।