सिस्टम का क्रूर मजाक: कुलदीप सेंगर को मिली आजादी, क्या अब न्याय की उम्मीद भी छोड़ दें?

दिल्ली हाई कोर्ट ने उन्नाव बलात्कार मामले में पूर्व भाजपा विधायक कुलदीप सिंह सेंगर की उम्रकैद की सजा पर रोक लगाते हुए उन्हें सशर्त जमानत दे दी है। निचली अदालत द्वारा दोषी ठहराए जाने के 6 साल बाद आई इस राहत ने कानूनी और सामाजिक बहस छेड़ दी है।

Unnao Rape Case

Unnao Rape Case Kuldeep Singh Sengar: दिल्ली उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने 2017 के उन्नाव बलात्कार कांड के मुख्य दोषी कुलदीप सिंह सेंगर को बड़ी राहत प्रदान की है। जस्टिस सुब्रमणियम प्रसाद और जस्टिस हरीश वैद्यनाथन शंकर की बेंच ने सेंगर की उम्रकैद की सजा पर अंतरिम रोक लगाते हुए उन्हें 15 लाख रुपये के निजी मुचलके पर जमानत दे दी। कोर्ट ने जमानत के लिए कड़ी शर्तें रखी हैं, जिसमें पीड़िता से 5 किलोमीटर की दूरी बनाए रखना, दिल्ली में प्रवास और पासपोर्ट जमा करना शामिल है। निचली अदालत ने 2019 में सेंगर को एक नाबालिग से बलात्कार और विश्वासघात का दोषी मानते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। हाई कोर्ट का यह फैसला पीड़िता के न्याय के संघर्ष और रसूखदार दोषियों को मिलने वाली राहत पर गंभीर सवाल खड़े करता है।

क्या था पूरा मामला?

  • 2017 की Unnao Rape Case घटना: उत्तर प्रदेश के उन्नाव में एक नाबालिग लड़की ने तत्कालीन भाजपा विधायक कुलदीप सेंगर पर बलात्कार का आरोप लगाया।

  • संघर्ष और त्रासदी: न्याय की गुहार लगाते समय पीड़िता के पिता की पुलिस हिरासत में मौत हो गई। इसके बाद पीड़िता की कार का रहस्यमयी एक्सीडेंट हुआ, जिसमें उसके रिश्तेदारों की मौत हो गई और वह स्वयं गंभीर रूप से घायल हुई।

  • सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप: मामले की संवेदनशीलता देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने ट्रायल को उत्तर प्रदेश से दिल्ली ट्रांसफर किया और रोजाना सुनवाई के आदेश दिए।

  • दोषसिद्धि (2019): दिल्ली की तीस हजारी कोर्ट ने सेंगर को दोषी ठहराया और कहा कि एक जनप्रतिनिधि ने जनता के भरोसे का कत्ल किया है।

संपादकीय दृष्टिकोण: न्याय की डगर में कड़वा मोड़

देखा जाए तो उच्च न्यायालय का यह Unnao Rape Case निर्णय कानूनी प्रक्रिया का हिस्सा तो हो सकता है, लेकिन यह ‘न्याय की धारणा’ (Perception of Justice) पर गहरी चोट करता है।

  1. पीड़िता का मानसिक दबाव: जब एक रसूखदार व्यक्ति, जिसे जघन्य अपराध के लिए उम्रकैद मिली हो, जेल से बाहर आता है, तो वह पीड़िता और गवाहों के लिए असुरक्षा का माहौल पैदा करता है। भले ही कोर्ट ने शर्तें लगाई हों, लेकिन जमीनी स्तर पर डर को खत्म करना मुश्किल है।

  2. दोषसिद्धि के बावजूद राहत: निचली अदालत ने स्पष्ट कहा था कि अपराध ‘घिनौना’ है। ऐसे में सजा पर रोक लगना उन संघर्षों को कमतर दिखाता है जो पीड़िता ने सिस्टम के खिलाफ लड़कर जीते थे।

  3. न्याय में देरी: 2017 के मामले में 2026 तक की अगली तारीखें यह दर्शाती हैं कि ‘फास्ट ट्रैक’ न्याय की अवधारणा अब भी रसूखदारों के लिए लचीली साबित हो रही है।

निष्कर्ष: कानून की नजर में कोई भी दोषी तब तक निर्दोष माना जा सकता है जब तक अपील लंबित है, लेकिन क्या समाज ऐसे अपराधों में दी गई राहत को स्वीकार कर पाएगा? यह सवाल भारतीय न्यायपालिका की साख से जुड़ा है।

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