Golden carriage: भारत और पाकिस्तान के विभाजन की कहानी केवल सीमाओं का बंटवारा नहीं थी, बल्कि इसमें इतिहास, संस्कृति, और शाही धरोहरों का भी गहरा प्रभाव था। 1947 का यह विभाजन अनेक विवादों और समझौतों के बीच संपन्न हुआ, लेकिन कुछ निर्णय ऐसे थे जिनमें टॉस के जरिए जीत का फैसला हुआ। ऐसी ही एक घटना थी सोने की परत चढ़ी शाही बग्घी (Golden carriage) का बंटवारा, जिसे दोनों देशों ने अपने हिस्से में रखने की पूरी कोशिश की। इस बग्घी की कहानी केवल एक साधारण वाहन की नहीं है, बल्कि यह भारत के शाही गौरव और सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक है। यह लेख आपको उस ऐतिहासिक टॉस, शाही बग्घी की विशेषताओं, और उसके भारतीय गणराज्य के प्रतीक बनने की रोचक यात्रा पर ले जाएगा।
भारत और पाकिस्तान के बीच ऐतिहासिक टॉस
1947 का विभाजन भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास में एक निर्णायक क्षण था। इस विभाजन ने केवल भूमि का बंटवारा नहीं किया, बल्कि शाही विरासत, सांस्कृतिक धरोहर, और संपत्ति का भी विभाजन किया। विभाजन के दौरान कई ऐसी घटनाएं हुईं जो आज भी इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। इन्हीं में से एक है सोने की परत चढ़ी एक शाही बग्घी का विवाद, जिसका निर्णय एक टॉस के माध्यम से हुआ। यह बग्घी, जो कभी ब्रिटिश वायसराय की शाही सवारी थी, भारत और पाकिस्तान के बीच एक टॉस के बाद भारतीय धरोहर का हिस्सा बन गई।
विभाजन की प्रक्रिया और संपत्तियों का बंटवारा
1947 में जब भारत और पाकिस्तान दो अलग-अलग राष्ट्र बने, तो केवल (Golden carriage) भौगोलिक सीमाओं का ही नहीं, बल्कि संपत्ति, सेना, और सांस्कृतिक धरोहरों का भी विभाजन हुआ। इस बंटवारे की जिम्मेदारी भारत की ओर से एच. एम. पटेल और पाकिस्तान की ओर से चौधरी मुहम्मद अली को सौंपी गई थी। इन दोनों अधिकारियों का कार्य केवल संपत्तियों का विभाजन करना नहीं था, बल्कि यह सुनिश्चित करना था कि दोनों राष्ट्रों के बीच किसी भी प्रकार का विवाद न हो। लेकिन इस प्रक्रिया के दौरान एक शाही बग्घी को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया, जिसने दोनों देशों के बीच एक रोचक और ऐतिहासिक घटना को जन्म दिया।
सोने की परत से सजी एक अद्वितीय धरोहर
यह बग्घी सिर्फ एक साधारण वाहन नहीं थी, बल्कि यह ब्रिटिश (Golden carriage) शासनकाल की शाही विरासत का प्रतीक थी। इस बग्घी को विशेष रूप से वायसराय के लिए तैयार किया गया था और इसे सोने की परत से सजाया गया था, जिससे यह अत्यंत भव्य और आकर्षक लगती थी। इस बग्घी की बनावट और कारीगरी अद्वितीय थी, और इसे शाही सवारी के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। इस बग्घी का उपयोग अंग्रेजों के शासनकाल में वायसराय द्वारा किया जाता था, जो इसे उनकी शान और प्रतिष्ठा का प्रतीक बनाता था।
टॉस का निर्णायक क्षण और भारत की जीत
जब विभाजन के समय इस बग्घी का बंटवारा करने का समय आया, तो यह तय नहीं हो पा रहा था कि इसे भारत के पास रहना चाहिए या पाकिस्तान के। दोनों देशों के प्रतिनिधि इस शाही बग्घी को अपने पास रखना चाहते थे, क्योंकि यह केवल एक वाहन नहीं थी, बल्कि शाही धरोहर का प्रतीक थी। इस विवाद का समाधान निकालने के लिए गवर्नर जनरल्स बॉडीगार्ड्स के कमांडेंट और उनके डिप्टी ने एक टॉस का सहारा लिया। यह टॉस भारत ने जीत लिया, और इस प्रकार सोने की परत चढ़ी शाही बग्घी भारतीय धरोहर का हिस्सा बन गई।
स्वतंत्रता के बाद Golden carriage का उपयोग
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, इस शाही बग्घी (Golden carriage) का उपयोग भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने किया। उन्होंने 26 जनवरी 1950 को गणतंत्र दिवस के अवसर पर इस बग्घी का उपयोग किया, जिससे यह भारतीय गणराज्य का एक महत्वपूर्ण प्रतीक बन गई। इस बग्घी ने भारतीय गणराज्य की शान और गौरव को बढ़ाया और यह राष्ट्रपति भवन की शाही धरोहर बन गई।
शुरुआती वर्षों में, राष्ट्रपति भवन में आयोजित होने वाले सभी समारोहों में इस बग्घी का उपयोग किया जाता था। राष्ट्रपति भवन के 330 एकड़ में फैले परिसर में यह बग्घी राष्ट्रपति की शाही सवारी के रूप में प्रयोग की जाती थी। लेकिन सुरक्षा कारणों से धीरे-धीरे इस बग्घी का उपयोग कम होता गया और अंततः बंद कर दिया गया।
इंदिरा गांधी की हत्या और Golden carriage का उपयोग बंद
1984 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सुरक्षा कारणों से राष्ट्रपति की सवारी में परिवर्तन किए गए। इसके बाद, राष्ट्रपति ने बुलेटप्रूफ वाहनों का उपयोग करना शुरू किया और शाही बग्घी का उपयोग बंद कर दिया गया। यह बग्घी, जो कभी भारतीय गणराज्य की शान और गौरव का प्रतीक थी, इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गई।
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Golden carriage की वापसी
हालांकि, 2014 में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने इस शाही बग्घी का पुनः उपयोग करने का निर्णय लिया। उन्होंने बीटिंग रिट्रीट समारोह में इस बग्घी का उपयोग किया, और इसके साथ ही शाही बग्घी की वापसी हुई। यह बग्घी एक बार फिर भारतीय गणराज्य के गौरव का प्रतीक बन गई और आज भी विशेष अवसरों पर इसका उपयोग किया जाता है।
40 वर्षों बाद बग्घी की वापसी
2024 के गणतंत्र दिवस पर, 40 वर्षों के लंबे अंतराल के बाद, इस शाही बग्घी ने एक बार फिर कर्तव्यपथ पर अपनी जगह बनाई। इस बार राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों इस बग्घी में सवार होकर समारोह में पहुंचे। इस घटना ने न केवल शाही बग्घी की भव्यता को पुनः जाग्रत किया, बल्कि यह भी दर्शाया कि भारत अपनी सांस्कृतिक धरोहर और शाही परंपराओं को सजीव रखने के लिए प्रतिबद्ध है।
Golden carriage और भारतीय संस्कृति
यह बग्घी न केवल भारत के शाही इतिहास का (Golden carriage) प्रतीक है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति और परंपराओं का भी प्रतीक है। इसका उपयोग राष्ट्रपति के शाही सवारी के रूप में किया जाता है, जिससे यह भारतीय गणराज्य की शान और गौरव को बढ़ाता है। इस बग्घी का हर हिस्सा, इसकी बनावट, इसकी सजावट, और इसकी संरचना—यह सब भारत की शाही धरोहर का प्रतीक है।
एक जीवंत धरोहर
सोने की परत से सजी इस शाही बग्घी का भारतीय गणराज्य के इतिहास में एक विशेष स्थान है। यह केवल एक साधारण वाहन नहीं है, बल्कि यह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, गणराज्य की स्थापना, और भारतीय शान और गौरव का प्रतीक है। यह बग्घी हमें उस समय की याद दिलाती है, जब भारत और पाकिस्तान के बीच एक टॉस ने इसे भारतीय धरोहर का हिस्सा बना दिया।
इस शाही बग्घी का हर वर्ष गणतंत्र दिवस पर उपयोग इस बात का प्रतीक है कि भारत अपनी सांस्कृतिक धरोहर और शाही परंपराओं को न केवल सजीव रखता है, बल्कि उन्हें सम्मानित भी करता है। यह बग्घी आने वाली पीढ़ियों के लिए एक प्रेरणा है और यह दिखाती है कि भारत अपनी शाही धरोहर को सहेज कर रखने के लिए किस प्रकार प्रतिबद्ध है।