आगरा ऑनलाइन डेस्क। दुनिया भर में क्रिसमस पर्व धूमधाम के साथ मनाया जा रहा है। प्रभु ईसा मसीह के जन्म पर भारत के अलावा दुनिया के कई देशों के लोग जश्न में डूबे हैं। क्रिसमस का आगाज 25 दिसंबर को हुआ और अगले कई दिनों तक लोग त्योहार को मनाएंगे। पर क्या आपको पता है कि मुगलों के जमाने में भी भारत में क्रिसमस मनाया जाता था। जी हां, उत्तर भारत का सबसे पुराना चर्च आगरा वजीरपुरा में मौजूद है, जिसे अकबर चर्च के नाम जाना जाता है। अबकर के शासनकाल के दौरान क्रिसमस पर्व मनाया जाता था। खुद मुगल बादशाह अपने दरबारियों के साथ चर्च में आता और ईसाई समाज के मिलकर पर्व को मनाता।
बेगम मरियम की इबादत के लिए बनवाया चर्च
मुगलों के शासनकाल के वक्त आगरा मुगल सम्राटों की राजधानी रहा। उस दौर में आगरा आने वाले यूरोपीय लोग इस शहर का ग्लैमर देखकर आश्चर्य में पड़ जाते थे। आगरा के इतिहास का राजकिशोर राजे अपनी किताब तवारीख़ -ऐ- आगरा में लिखते हैं, अकबर ने अपनी बेगम मरियम की इबादत के लिए आगरा में चर्च बनवाया था। इतिहासकार बताते हैं कि लाहौर से एक पादरी जेसुइट जेविरयर आगरा पहुंचे थे। पादरी ने इच्छा जाहिर की थी उसे शहर में एक स्थान दिया जाए जहां वह प्रभु ईसा मसीह की इबादत कर सकें। तब अकबर ने मरियम के कहने पर उस पादरी को यह जगह वजीरपुरा में मुहैया कराई थी। जहां पर यह चर्च बनाया गया है। उत्तर भारत का सबसे पुराना चर्च है जो ताजमहल से भी पुराना है।
ईसाई धर्म गुरुओं को आमंत्रित किया
अकबर अपनी बेगम से बेइंतहा मोहब्बत करते थे। मरियम के कहने पर उन्होंने चर्च के निर्माण को लेकर अपने दरबार में ईसाई धर्म गुरुओं को आमंत्रित किया था और आगरा में एक चर्च बनाने की भी अनुमति दी थी। इसमें इतने भारी घंटे लगाए गए थे। जहांगीर के शासनकाल में इनमें से एक घंटा गिर गया था तो उसे एक हाथी अकेले खींचकर सिटी कोतवाली तक नहीं ले जाया पाया था। अकबर और उसके बेटे जहांगीर, दोनों के ही शासनकाल में क्रिसमस मनाया जाता था और इस मौके पर आगरा किले में पारंपरिक रूप से रात्रिभोज का आयोजन होता था। इतिहासकारों ने लिखा है कि क्रिसमस की सुबह अकबर अपने दरबारियों के साथ चर्च आता था, जहां गुफा में ईसा मसीह के जन्म की झांकी सजाई जाती थी। लोगों के साथ क्रिसमस पर्व मनाता।
जहांगीर ने चर्च को दिया विशाल रूप
इतिहासकार बताते हैं कि इस चर्च का निर्माण अकबर ने 1599 इसी में करवाया था। इसके 63 साल के बाद ईसाइयों का शहर में आगमन माना जाता है। अकबर के बाद इस चर्च को शहजादा सलीम बाद में जिन्हें हम जहांगीर के नाम से जानते हैं, उन्होंने इस चर्च को विशाल रूप दिया था। वर्तमान फादर मिरिंडा बताते हैं कि इस चर्च के बगल में गगनचुंबी घंटी लगी हुई है, जो एक समय शहर भर में गुंजायमान होती थी। दूर-दूर तक इस घंटी की आवाज सुनाई देती थी। लेकिन एक राजा ने इस घंटी को यह कहकर बंद करवा दिया था कि इसकी वजह से बीमार और बूढ़े लोगों को तकलीफ होती है। तब के बादसे ये घंटी खामोश है।
और नाटक का आयोजन किया जाने लगा
लेखकर थॉमस स्मिथ ने लिखा है कि यह शहर इटैलियन ज्वेलर्स, पुर्तगाली और डच नाव मालिकों, फ्रांसीसी यात्रियों, व्यापारियों और सेंट्रल एशिया के कलाकारों व मिडल ईस्ट में ईरान के स्कॉलर्स के कारण सार्वभौमिक बन चुका था। विदेशियों की ऐसी मौजूदगी के कारण उस दौर में भी क्रिसमस एक बड़ा जश्न बन चुका था। त्योहार की खुशी पूरे शहर पर छाई रहती थी। बाजारों को रंग-बिरंगे तोरण से सजाया जाता था। अलग-अलग देशों के झंडे सर्द दिसंबर में पूरे शहर में फहरते दिखते थे। इस त्योहार पर आपस में लड़ने वाले यूरोपीय भी एक हो जाते थे और त्योहार में हिस्सा लेते थे। उन्हीं के कारण उत्तर भारत खासकर आगरा में यीशु के जन्म को दर्शाने वाले नाटक का आयोजन किया जाने लगा था।
मंचन बदस्तूर जारी रहा
क्रिसमस की रात को यूरोपीय लोग इस नाटक का मंचन करते थे, जिसमें छोटे-छोटे लड़के-लड़कियां सज-धज कर एंजेल्स के रूप में शामिल होते थे। अकबर और जहांगीर के शासनकाल में यह मंचन और संगठित तरीके से होने लगा और व्यवस्था बनाए रखने के लिए शाही सुरक्षा बलों को भी तैनात किया जाता था। इतिहासकारों की मानें तो उस दौर में आगरा के फुलत्ती बाजार में रिहर्सल होती थी, जो ब्रिटिश लोगों का मुख्यालय था। आगरा में शाहजहां के शासनकाल में साल 1632 से यह मंचन बंद कर दिया गया, क्योंकि पुर्तगालियों के साथ झड़प के बाद उसने चर्च को ढहा दिया और सार्वजनिक रूप से ईसाइयों के आराधना करने पर पाबंदी लगा दी थी। उस समय बंगाल से बड़ी संख्या में बंगाल से पुर्तगाली बंदी आगरा लाए गए थे।
इन मुगलों ने भी मनाया क्रिसमस पर्व
साल 1640 में पुर्तगालियों और मुगल सम्राट के बीच संबंध फिर से सुधर गए और उन्हें आगरा में फिर से चर्च के निर्माण की अनुमति मिल गई थी। चर्च का अस्तित्व बरकरार रहने के बावजूद मोहम्मद शाह रंगीला के शासनकाल में नाट्य मंचन बंद हो गया। क्योंकि इसका आयोजन करने वाले लोगों ने दिल्ली में अपनी बेइज्जती महसूस की और भोपाल जाकर बस गए थे। इसके बाद शाह आलम, अकबर शाह सैनी और बहादुर शाह जफर ईस्ट इंडिया कंपनी के अंग्रेज अफसरों के साथ क्रिसमस मनाते रहे। इस दौरान मराठा दरबारी हिंदू राव फादर क्रिसमस की भूमिका में नजर आते थे। 25 दिसंबर की सुबह से चर्च में पर्व मनाया गया, जो नववर्ष तक ऐसे ही बदस्तूर चलता रहेगा।