प्रयागराज ऑनलाइन डेस्क। प्रयागराज महाकुंभ में संत-महात्माओं के पहुंचने का सिलसिला जारी है। 13 जनवरी से शुरू होने वाले महाकुंभ में करीब 10 से 20 लाख सन्यासियों के आने की संभावना जताई गई है। 45 दिनों तक गंगा के तट पर रेत के किनारे संत हठयोग करते हुए दिखाई देंगे। ऐसे ही संतों का एक जत्था हरियाणा के कुरुक्षेत्र इलाके से संगमनगरी में पहुंचा। जिन्हें जंगम साधू कहा जाता है। जंगम साधूओं की पहचान गेरुआ लुंगी-कुर्ते, सिर पर दशनामी पगड़ी और पगड़ी पर तांबे-पीतल के बने गुलदान में मोर पंखों का गुच्छा। हाथ में एक विशेष आकार की घंटी (टल्ली) के जरिए होती है। भगवान शिव की जांघ से उत्पत्ति के कारण इन्हें जंगम साधु कहा जाता है। ये साधु कभी भी धन-धान्य को हाथ नहीं लगाते। यही इनकी सबसे बड़ी पहचान है।
आमलोगों से नहीं मांगते भिक्षा
संगमनगरी सज-धज कर तैयार है। देश-दुनिया से संतों के आने का सिलसिला जारी है। इसी कड़ी में हरियाणा के कुरुक्षेत्र इलाके से जंगम साधू भी संगमनगरी पधार चुके हैं। प्रयागराज महाकुंभ मेला के दौरान अनोखे अंदाज में शिव भजन गाते हुए यह साधु, नागा सन्यासियों के शिविरों में अक्सर दिख जाते हैं। जंगम साधुओं को ’जंगम जोगी’ भी कहा जाता है। ये कुंभ मेले में घूम-घूमकर मांगते तो हैं, लेकिन अन्य मांगने वालों की तरह नहीं। बल्कि अखाड़ों और शिविरों के सामने खड़े हो कर टल्ली (एक विशेष प्रकार की घण्टी) बजाते हुए और अनोखा शिव भजन गाते हुए। इनके भजन में शिव विवाह कथा, कलयुग की कथा और शिव पुराण तक शामिल होता है।
पालन-पोषण का एकमात्र स्रोत
हरियाणा के कुरुक्षेत्र से इन जंगम साधुओं की टोली महाकुंभ मेला क्षेत्र पहुंच चुकी है। एक टोली का नेतृत्व कर रहे सोमगिरि जंगम बताते हैं, हम लोग केवल टल्ली में ही भिक्षा स्वीकार करते हैं। हाथ में भिक्षा लेना हमारी परंपरा के विरुद्ध है, चाहे भिक्षा में बड़ी रकम ही क्यों न दी जाए। साधु-संतों और महंतों से प्राप्त भिक्षा को हम धर्म का दान मानते हैं। यही भिक्षा हमारे परिवार के पालन-पोषण का एकमात्र स्रोत है। बताते हैं कि जंगम कभी हाथ फैला कर दान नहीं मांगते। जब भी कोई दान देता है तो हम अपने हाथ में पकड़ी टल्ली को उलटकर उसमें दान स्वीकार करते हैं। टल्ली में दान इसलिए लेते हैं क्योंकि भगवान शिव का आदेश मिला था कि माया को कभी हाथ में ना लें। हम आज भी उस आदेश का पालन कर रहे हैं।
पुराणों में भी जंगम जाति का जिक्र
सोमगिरि बताते हैं कि हम 5 से 7 लोगों की टोली अपनी पारंपरिक वेशभूषा में निकलती है। कुंभ में 50-60जंगम पहुंच चुके हैं। अभी और जंगम आएंगे। भगवान शिव के प्रतीक नागराज, भगवान विष्णु के मोरपंख से बना मुकुट, माता पार्वती के आभूषणों का प्रतीक बाला और घंटियां हमारी पोशाक में शामिल हैं। जंगम जाति के साधु कुरुक्षेत्र के निवासी हैं और ब्राह्मण वंश से संबंध रखते हैं। इस परंपरा को केवल उनके वंशज ही आगे बढ़ा सकते हैं। बाहरी लोगों को इस परंपरा में शामिल नहीं किया जाता। सोमगिरि बताते हैं कि धार्मिक ग्रंथों और पुराणों में भी जंगम जाति का जिक्र मिलता है।
जंगम गुरु के नाम से बुलाया जाता है
जंगम साधु पूरे देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग नामों से जाने जाते हैं। महाराष्ट्र से मध्यप्रदेश तक इन्हें जंगम कहा जाता है तो कर्नाटक में ये जंगम अय्या (आचार्य) स्वामी कहा जाता है। तमिलनाडु के कई इलाकों में जंगम साधु जंगम वीराशिव पंडरम के नाम से जाने जाते हैं। वहीं हरियाणा में जंगम योगी तो उत्तर भारत में जंगम बाबा के नाम से जाने जाते हैं। आंध्रप्रदेश में इन्हें जंगम देवा तो नेपाल में जंगम गुरु के नाम से बुलाया जाता है। बताते हैं कि इन साधुओं की आबादी 5 से 6 हज़ार के बीच है।
साधु का पुत्र ही जंगम साधु बन सकता
इन साधुओं से जुड़ी एक खास बात यह भी है कि ऐसे ही कोई भी जंगम साधु नहीं बन सकता। कहा जाता है कि सिर्फ जंगम साधु का पुत्र ही जंगम साधु बन सकता है। इनकी हर पीढ़ी में हर जंगम परिवार से एक सदस्य साधु बनता है। इसी तरह यह समुदाय सदियों से बढ़ता चला आ रहा है। जूना अखाड़े की महंत अर्चना गिरि बताती हैं कि जंगम साधु हमारे पुरोहित की तरह हैं। हम शिव के उपासक हैं और वह शिव की महिमा हमें सुनाते हैं। इसलिए हम उनको दिल खोलकर दान भी देते हैं और सम्मान भी करते हैं।
कथा के अनुसार
कथा के अनुसार कहा जाता है कि माता पार्वती ने जब भगवान गणेश को बनाया तो उन्होंने शिवजी से कहा कि वह भी किसी देव की उत्पत्ति करें। ऐसे में भगवान शिव ने अपनी जांघ को काटा और उसमें से गिरा रक्त कुश नामक मूर्ति पर पड़ा और वह निर्जीव मूर्ति जीवित हो गई। इसी कुश की मूर्ति से उत्पत्ति हुई जंगम साधुओं की। वहीं दूसरी कथा के अनुसार शिव-पार्वती के विवाह के दौरान भगवान शिव ने पहले विष्णु और फिर ब्रह्माजी को विवाह कराने के लिए दक्षिणा देनी चाही लेकिन दोनों ने दक्षिणा लेने से इनकार कर दिया। हिंदू मान्यताओं के अनुसार बिना दक्षिणा स्वीकार किये कोई भी अनुष्ठान संपन्न नहीं माना जाता। यही कारण था कि भगवान शिव ने अपनी जांघ काटकर जंगम साधुओं को उत्पन्न किया।