प्रयागराज ऑनलाइन डेस्क। प्रयागराज में महाकुंभ का आयोजन चल रहा है। देश ही नहीं बल्कि दुनिया के देशों से भक्तों के आने का सिलसिला जारी है। इनसब के बीच सबसे ज्यादा आकर्षण का केंद्र नागा साधू बने हुए हैं। भक्त संतों के पास जाकर आर्शीवाद ले रहे हैं। संगम की रेती में महिला नागा साधू भी तपस्या कर रही हैं। ऐसे में हम नागा साधुओं के उस रहस्य से आपको रूबरू करा रहे हैं, जिसके बारे में जानकार आप चकित रह जाएंगे।
आदि शंकराचार्य ने रखी थी नींव
आदि शंकराचार्य ने 9वीं सदी में दशनामी संप्रदाय की शुरुआत की। ज्यादातर नागा संन्यासी इसी संप्रदाय से आते हैं। नागा संन्यासी दो तरह के होते हैं। एक शास्त्रधारी और दूसरा शस्त्रधारी। जानकार बताते हैं कि मुगलों के आक्रमण के बाद नागा साधुओं की सैनिक शाखा शुरू करने की योजना बनी। शृंगेरी मठ ने नागा साधुओं की फौज तैयार की। पहले इसमें सिर्फ क्षत्रिय शामिल होते थे। बाद में जातियों का बैरियर हटा दिया गया। नागा साधुओं की इसी फौज ने मुगलों से सनातन को बचाया। मुगल सैनिकों को खदेड़ा और जीत दर्ज की।
जानिए कैसे बनाए जाते हैं नागा साधू
आमतौर पर नागा बनने की उम्र 17 से 19 साल होती है। इसके तीन स्टेज हैं, महापुरुष, अवधूत और दिगंबर, लेकिन इससे पहले एक प्रीस्टेज यानी परख अवधि होती है। जो भी नागा साधु बनने के लिए अखाड़े में आवेदन देता है, उसे पहले लौटा दिया जाता है। फिर भी वो नहीं मानता, तब अखाड़ा उसकी पूरी पड़ताल करता है। और फिर नागा बनने की चाह रखने वाले व्यक्ति को एक गुरु बनाना होता है। किसी अखाड़े में रहकर दो-तीन साल सेवा करनी होती है। वह एक टाइम ही भोजन करता है। काम वासना, नींद और भूख पर काबू करना सीखता है।
शिष्य की शिखा यानी चोटी काट लेते हैं
जो व्यक्ति परख अवधि में खरा उतरता है, उसे वापस संसारी दुनिया में लौटने की सलाह दी जाती है। फिर भी वह नहीं लौटता है, तो उसे संन्यास जीवन में रहने की प्रतिज्ञा दिलाई जाती है। उसे ’महापुरुष’ घोषित करके पंच संस्कार किया जाता है। पंच संस्कार यानी शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य और गणेश को गुरु बनाना पड़ता है। अखाड़े की तरफ से इन्हें नारियल, भगवा वस्त्र, जनेऊ, रुद्राक्ष, भभूत सहित नागाओं के प्रतीक और आभूषण दिए जाते हैं। इसके बाद गुरु अपनी प्रेम कटारी से शिष्य की शिखा यानी चोटी काट लेते हैं।
और 17वां पिंडदान खुद का
महापुरुष को अवधूत बनाने के लिए सुबह चार बजे उठाया जाता है। नित्य कर्म और साधना के बाद गुरु इन्हें लेकर नदी किनारे पहुंचते हैं। उसके शरीर से बाल हटाकर नवजात बच्चे जैसा कर देते हैं। नदी में स्नान कराया जाता है। वह पुरानी लंगोटी छोड़कर नई लंगोटी धारण करता है। इसके बाद गुरु जनेऊ पहनाकर दंड, कमंडल और भस्म देते हैं। इसके अलावा महापुरुष नागाओं को तीन दिन तक उपवास रखना होता है। फिर वह खुद का श्राद्ध करता है। उसे 17 पिंड दान करने होते हैं। 16 अपने पूर्वजों के और 17वां पिंडदान खुद का।
108 डुबकियां लगवाई जाती हैं
इसके बाद आधी रात में विरजा यानी विजया यज्ञ किया जाता है। गुरु एक बार फिर महापुरुष से कहते हैं कि वो चाहे तो सांसारिक जीवन में लौट सकता है। जब वह नहीं लौटता तो यज्ञ के बाद अखाड़े के आचार्य, महामंडलेश्वर या पीठाधीश्वर महापुरुष को गुरुमंत्र देते हैं। इसके बाद उसे धर्म ध्वजा के नीचे बैठाकर ऊं नमः शिवाय का जाप कराया जाता है।अगले दिन सुबह चार बजे महापुरुष को फिर गंगा तट पर लाया जाता है। 108 डुबकियां लगवाई जाती हैं। इसके बाद दंड-कमंडल का त्याग कराया जाता है। अब वह अवधूत संन्यासी बन जाता है।
जननांग की एक नस खींची जाती है
भारत में महाकुंभ’ किताब के मुताबिक अवधूत बनने के बाद दिगंबर की दीक्षा लेनी होती है। ये दीक्षा शाही स्नान से एक दिन पहले होती है। ये बेहद कठिन संस्कार होता है।।इसमें अखाड़े की धर्म ध्वजा के नीचे उसे 24 घंटे बिना कुछ खाए-पिए व्रत करना होता है। इसके बाद तंगतोड़ संस्कार किया जाता है। इसमें सुबह तीन बजे अखाड़े के भाले के सामने आग जलाकर अवधूत के सिर पर जल छिड़का जाता है। उसके जननांग की एक नस खींची जाती है। साधक नपुंसक बन जाता है। इसके बाद सभी शाही स्नान के लिए जाते हैं। डुबकी लगाते ही ये नागा साधु बन जाते हैं।
लेकिन अब, इस प्रक्रिया को आयुर्वेदिक औषधियों की
नागा साधू दिगंबर विजय पुरी मध्य प्रदेश के ओंकारेश्वर से प्रयागराज पहुंचे हैं। उन्होंने बताया कि नागा साधु बनने के लिए 12-13 साल की कठिन तपस्या और संयम की आवश्यकता होती है। उन्होंने बताया, हमारा जीवन त्याग और तपस्या का है। भस्म ही हमारा वस्त्र है, और रुद्राक्ष हमें मानसिक शांति प्रदान करता है। मैंने अपने शरीर पर 35 किलो वजनी सवा लाख रुद्राक्ष धारण किए हैं। उन्होंने आगे बताया कि नागा साधु बनने की प्रक्रिया में पहले शारीरिक झटके दिए जाते थे, जिससे कई साधुओं की मृत्यु हो जाती थी। लेकिन अब, इस प्रक्रिया को आयुर्वेदिक औषधियों की सहायता से किया जाता है। ये औषधियां कामवासना पर काबू पाने में मदद करती हैं। कामवासना से मुक्ति मन को नियंत्रित करने पर निर्भर करती है। आयुर्वेदिक दवाओं के साथ-साथ मन को आत्मा की ओर केंद्रित करना सबसे महत्वपूर्ण ह।
महिलाएं भी नागा साधु बनती हैं
महिलाएं भी नागा साधु बनती हैं। महिला नागा साधु को नागिन, अवधूतनी या माई कहा जाता है। ये वस्त्रधारण करती हैं। हालांकि कुछ चुनिंदा महिला नागा वस्त्र त्यागकर भभूत को ही वस्त्र बना लेती हैं। जूना अखाड़ा देश का सबसे बड़ा और पुराना अखाड़ा है। ज्यादातर महिला नागा इसी से जुड़ी हैं। 2013 में पहली बार इससे महिला नागा जुड़ीं थीं। सबसे ज्यादा महिला नागा इसी अखाड़े में हैं। इसके अलावा आह्वान अखाड़ा, निरंजन अखाड़ा, महानिर्वाणी अखाड़ा, अटल अखाड़ा और आनंद अखाड़े में भी महिला नागा हैं।
महिलाओं को ब्रह्मचर्य के पालन का संकल्प लेना होता है
महिला नागा संन्यासी बनने की प्रक्रिया भी पुरुष नागा साधुओं जैसी ही है। अंतर बस इतना है कि ब्रह्मचर्य पालन के लिए पुरुषों का जननांग निष्क्रिय किया जाता है, जबकि महिलाओं को ब्रह्मचर्य के पालन का संकल्प लेना होता है। कई महिलाओं को ये साबित करने में 10-12 साल भी लग जाते हैं। जब अखाड़े के गुरु को उस महिला पर भरोसा हो जाता है, तो वो दीक्षा देते हैं। दीक्षा के बाद महिला संन्यासी को सांसारिक कपड़ा छोड़कर अखाड़े से मिला पीला या भगवा वस्त्र पहनना होता है। इन्हें माता की पदवी दी जाती है। दीक्षा के बाद नागा संन्यासिनी को अखाड़े में प्रवेश दिलाया जा रहा है।