नई दिल्ली। सियासत के मैदान में लोकसभा का रण एक बड़ा कुरुक्षेत्र माना जाता हैं। जहां सिर्फ अस्त्र और शस्त्र काम नही आते बल्कि सत्ता के इस लड़ाई में प्रतिद्वंदी के साथ जंग लड़ती हैं जनता। जिसके हाथों में सब कुछ होता हैं। राजनीतिक पार्टीयां अपने हिसाब से तैयारी तो पूरी करती हैं मगर उस पर अंतिम मुहर जनता लगाती है। मगर जब बात सत्ता के सबसे बड़े गलियारे की हो तो सिर्फ इतने में काम कहां चलता हैं। मैं बात कर रहा हूँ उत्तरप्रदेश के Ghazipur लोकसभा सीट की जहां से वर्तमान सांसद Afzal Ansari के खिलाफ बीजेपी ने पारस नाथ राय को टिकट दिया है। ऐसे में यह देखना बड़ा दिलचस्प होगा की गाजीपुर के समीकरण में पारस कितना ठीक बैठते हैं।
Ghazipur से अब तक के सांसद
- 1952-हर प्रसाद सिंह
- 1957 -हर प्रसाद सिंह
- 1962-वीएस गहमरी
- 1967-सरजू पांडे
- 1971- सरजू पांडे
- 1977-गौरी शंकर राय
- 1980-जैनुल बशर
- 1984-जैनुल बशर
- 1989-जगदीश कुशवाह
- 1991-विश्वनाथ शास्त्री
- 1996-मनोज सिन्हा
- 1998-ओमप्रकाश सिंह
- 1999-मनोज सिन्हा
- 2004-अफजाल अंसारी
- 2009 – राधे मोहन सिंह
- 2014-मनोज सिन्हा
- 2019-अफजाल अंसारी
Ghazipur : विधानसभा
गाजीपुर लोकसभा सीट के अंदर राज्य के पाँच विधानसभा आते हैं। इनमें
- जखनियां (एससी)
- सैदपुर (एससी)
- ग़ाज़ीपुर सदर
- जंगीपुर
- जमानिया
पारस मनोज सिन्हा के करीबी माने जाते हैं
अगर बात करें पिछले लोकसभा चुनाव परिणामों की तो नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के केंद्र में हुई पिछले दो चुनावों में बीजेपी ने यूपी में अपने विपक्षियों पर लगभग क्लीन स्वीप कर लिया लेकिन गाजीपुर का मामला एकदम बराबरी पर छूटा। 2014 में यहाँ से 3,06,929 पाकर बीजेपी के मनोज सिन्हा सांसद बने तो वहीं दूसरी बार 2019 में यहां से 566,082 वोटों के साथ अफजाल अंसारी पर जनता ने अपना भरोसा जताया। 2019 के लोकसभा में अफजाल अंसारी मनोज सिन्हा को ही हराया था। गाजीपुर के इस सीट से सिन्हा 3 बार और अंसारी दो बार सांसद बने हैं लेकिन सीट से कोई सांसद लगातार दोबारा नही जीत सका। ऐसे में बीजेपी ने एक बड़ा दाव खेलते हुए पारसनाथ राय को प्रत्याशी बनाकर सबको चौंका दिया हैं। पारस मनोज सिन्हा के करीबी माने जाते रहें हैं।
टिकट मिलने का खुद पारस नाथ राय को भी भरोसा नहीं
बुधवार को बीजेपी ने लोकसभा के लिए अपने 10वीं सूची जारी की। जिसमें पार्टी ने गाजीपुर सीट से भी उम्मीदवार के नाम की घोषणा की। पार्टी ने यहाँ से पारस नाथ राय को उम्मीदवार बनाया। जिसको लेकर उन्होंने कहा कि भाजपा के एक पदाधिकारी ने फोन करके टिकट मिलने की सूचना दी। जिसपर उन्हें भरोसा नहीं हुआ और उन्हें उससे पूछा की क्या यह सही है? उसके बाद भी उन्हें दो घंटे बाद इस बात का भरोसा हुआ कि उन्हें पार्टी ने टिकट दिया हैं।
संघ में हैं Paras Nath Rai की सक्रियता
कहा जाता है कि अब तक हुए चुनावों में Paras Nath Rai ने ही मनोज सिन्हा की चुनावी जिम्मेदारी संभालते रहे हैं। कॉलेज के दिनों से लेकर संघ में दोनों ने एक साथ काम किया हैं। जम्मू कश्मीर के उप राज्यपाल के पद पर रहते हुए भी जब कभी मनोज सिन्हा का गाजीपुर आना होता हैं। वो पारस नाथ के घर ही रुकते हैं गाजीपुर में पारस नाथ का मदन मोहन मालवीय समेत कई कॉलेज में हर साल होने वाले कार्यक्रमों में वो शिरकत करते हैं। भले ही पार्टी में उनकी सक्रियता कम हो लेकिन संघ में उनकी काफी सक्रियता हैं। इससे पहले विद्यार्थी परिषद के प्रदेश मंत्री और वर्तमान में संघ के संपर्क प्रमुख के पद पर हैं।
Ghazipur : जातीय समीकरण
उत्तरप्रदेश का इस लोकसभा सीट से हार और जीत का फैसला जातीय समीकरण पर निर्भर रहता। लोकसभा के इस सीट पर अंसारी परिवार बनाम भूमिहार ब्राह्मण खूब देखा जाता हैं। लेकिन इलाके में सबसे ज्यादा संख्या में यादव मतदाता हैं तो वही कुछ इलाके में दलित और मुस्लिम भी जीत हार में बड़ा अंतर के लिए जिम्मेवार होते हैं। इस इलाके इन तीन जातियों की संख्या लगभग आधी हैं। इसके अलावा यहाँ डेढ़ लाख से अधिक बिंद समुदाय, करीब पौने दो लाख राजपूत और लगभग एक लाख वैश्य जाति के वोटर भी हैं। वही अगर मुकाबला त्रिकोणीय हो जाए फिर ढाई लाख से अधिक आबादी वाला कुशवाहा समाज भी बड़ा कारण बन जाता हैं।
अब तक सिर्फ 3 चुनाव हारे हैं Afzal Ansari
राजनीति की मिजाज देख पार्टी बदल लेने वाले अफजाल अंसारी के राजनीति करियर में बहुत कम हुआ जब उसे हार देखनी पड़ी हो। आँकड़े बताते हैं कि अंसारी ने अब तक दस चुनाव लड़ा है जिसमें से सात बार जीत तो सिर्फ तीन बार उन्होंने हार का मुंह देखा है। उत्तरप्रदेश के अलग अलग सीटों से पांच बार विधायक और Ghazipur से दो बार सांसद रह चुके हैं। 1985 के विधानसभा चुनाव से अंसारी ने अपनी राजनीति की शुरुआत की और फिर 1985, 1989, 91,93 व 96 तक उनका जीत का शीलशिला चलता रहा। अंसारी के जीत पर रोक लगा वर्ष 2002 के विधानसभा चुनाव में जब वो बीजेपी के कृष्णानंद राय से हार गए। फिर वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में जीते और 2009, 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्हें हार झेलनी पड़ी।