विधानसभा में विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी का नेता प्रतिपक्ष है, जो एक संवैधानिक पद है। लेकिन इसके लिए सबसे बड़ी पार्टी को लोकसभा की कुल सीटों का 10 प्रतिशत मिलना चाहिए।
भारत के इतिहास में अब तक 14 में से 13 नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी पर बैठने के बाद प्रधानमंत्री बनने में सफल नहीं हुए हैं। इतना ही नहीं, तीन नेताओं ने नेता प्रतिपक्ष बनकर अपना राजनीतिक जीवन समाप्त कर दिया।
लोकसभा में विपक्ष की जगह
संसदीय विधि ने लोकसभा में नेता विपक्ष पद का उल्लेख किया है। 1977 में जनता पार्टी की सरकार ने इस पद को पहली बार परिभाषित किया। इस पद पर बैठे व्यक्ति को तब से बहुत सारी शक्तियां दी गई हैं।
लोकसभा में लोक लेखा समिति का नेता प्रतिपक्ष होता है। नेता प्रतिपक्ष भी कई पदों पर नियुक्तियों में महत्वपूर्ण है। नेताओं को सदन में विपक्ष का चेहरा भी कहा जाता है।
1. प्रतिपक्ष के 13 नेताओं में से कोई भी प्रधानमंत्री नहीं बन पाया
1969 में, कांग्रेस में बगावत के कारण, विपक्ष को देश में पहली बार नेता प्रतिपक्ष का पद मिला। 1969 में इंदिरा गांधी के खिलाफ कांग्रेस के पुराने नेताओं ने मोर्चा खोल दिया। इसके नेतृत्व में अराजकता थी। इस गुट का नाम कांग्रेस (संगठन) था।
जब दूसरी पार्टी टूट गई, सरकार को कांग्रेस (ओ) को विपक्ष की अनुमति देनी पड़ी। बिहार के बक्सर से सांसद राम सुभाग सिंह ने संसद में नेता प्रतिपक्ष की भूमिका निभाई, तब से अब तक 14 बार लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष बन चुके हैं। लालकृष्ण आडवाणी को तीन बार यह पद मिला है, जबकि अटल बिहारी और यशवंत राव चव्हाण को दो-दो बार मिला है।
अब राहुल गांधी लोकसभा में 15वें प्रतिपक्षीय नेता हैं।
यह दिलचस्प है कि अटल बिहारी वाजपेयी को छोड़कर किसी भी प्रतिपक्षी नेता को प्रधानमंत्री पद नहीं मिला। 1996 में देश के प्रधानमंत्री बने नेता प्रतिपक्ष अटल बिहारी वाजपेयी। लेकिन कई नेता प्रधानमंत्री के दावेदार थे।
1979 में जगजीवन राम, 2004 में सोनिया गांधी और 2009 में लालकृष्ण आडवाणी सबसे बड़े प्रधानमंत्री दावेदार थे। यशवंत राव चव्हाण, सुषमा स्वराज और शरद पवार भी प्रधानमंत्री पद के लिए चले गए। 1996 में प्रधानमंत्री पद से हटने के बाद पीवी नरसिम्हा राव नेता प्रतिपक्ष बन गए, लेकिन वे 15 दिन ही इस पद पर रहे।
2. 3 नेताओं का करियर खत्म, एक की हत्या
तीन प्रतिपक्षीय सांसद भी इस पद पर जाने के बाद अपने राजनीतिक करियर को समाप्त कर चुके हैं। पहला नाम राम सुभाग सिंह है।
1969 से 1971 तक लोकसभा के प्रतिपक्ष रहे राम सुभाग सिंह ने इसके बाद कोई महत्वपूर्ण पद नहीं हासिल किया। 1971 में वे भी सांसदी हार गए। 1971 के चुनाव में राम सुभाग को कांग्रेस के अनंत शर्मा ने 30 हजार वोटों से हराया था।
ऐसा ही जगजीवन राम के साथ हुआ। वे नेता प्रतिपक्ष बनने के बाद कोई बड़ा पद नहीं पाए। 80 के दशक में उन्होंने प्रधानमंत्री पद का सबसे बड़ा दावेदार माना जाता था।
प्रधानमंत्री बनने के बाद पीवी नरसिम्हा राव भी नेता प्रतिपक्ष नियुक्त हुए, लेकिन उनकी राजनीति बहुत देर नहीं चली। राव नेता प्रतिपक्ष के पद से हटने के बाद राजनीति से दूर चले गए। 2004 में भी उन्होंने चुनाव लड़ने का ऐलान किया था, लेकिन बाद में मना कर दिया। 1989-91 तक नेता प्रतिपक्ष रहे राजीव गांधी को तमिलनाडु में चुनावी रैली में मार डाला गया।
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3. यह पद सिर्फ 468 दिन तक दक्षिण में रहा
उत्तर भारतीयों का दबदबा नेता प्रतिपक्ष पर है। अब तक, राहुल सहित लोकसभा में 15 प्रतिपक्षी नेता रहे हैं, जिनमें से 5 उत्तर प्रदेश, 3 महाराष्ट्र, 2 गुजरात और 2 बिहार के हैं। यह पद दक्षिण भारत के दो नेताओं के पास है।
1978 से 1979 तक, केरल के इडुक्की से सांसद सीएम. स्टीफन एक वर्ष और 88 दिन के लिए इस पद पर रहे। वहीं 1996 में पीवी नरसिम्हा राव ने 15 दिन तक नेता प्रतिपक्ष का पद संभाला। दोनों ने 468 दिनों तक काम किया।