Indian aviation airline graveyard: भारत का आसमान जितना चमकदार दिखता है, एयरलाइन कंपनियों के लिए उतना ही खतरनाक साबित होता है। 1991 के बाद से, भारतीय एविएशन ने ईस्ट-वेस्ट एयरलाइंस से लेकर हाल ही में गो फर्स्ट तक, कम से कम दो दर्जन घरेलू एयरलाइनों को दफन होते देखा है। इंडिगो एयरलाइंस (IndiGo) जैसी ‘नो-फ्रिल्स’ और ‘ज़ीरो-कर्ज’ वाली कंपनी आज भी खड़ी है, लेकिन नए FDTL नियमों और बढ़ते परिचालन खर्च से उसकी ताकत पर भी सवालिया निशान हैं। दूसरी तरफ, टाटा ने एयर इंडिया (Air India) को नया जीवन दिया है, जबकि स्पाइसजेट (SpiceJet) वित्तीय चुनौतियों से जूझ रही है और अकासा एयर (Akasa Air) नया दांव लगा रही है। यह विडंबना है कि दुनिया का सबसे तेजी से बढ़ता यात्री बाजार, एयरलाइन कंपनियों के लिए सबसे बड़ा कब्रिस्तान बन गया है।
🚨Major Defunct Airlines of India
1.Air Sahara – 2007 (Merged)
2.Air Deccan – 2008 (Merged)
3.Paramount Airways – 2010
4.Kingfisher Airlines – 2012
5.Jet Airways – 2019
6.TruJet – 2022
7.Go First – 2023
8.Vistara – 2024 (Merged)
9.AIX Connect – 2024 (Merged) pic.twitter.com/Drv9yZPjii— WingX Aviation (@wingXaviation) December 5, 2025
कब्रगाह का सबसे सटीक मज़ाक
Indian aviation का सबसे पुराना मज़ाक आज भी सबसे सटीक है: ‘अगर आप जल्द से जल्द छोटी पूंजी बनाना चाहते हैं तो बड़ी पूंजी लेकर एयरलाइन शुरू कीजिए।’ यह मज़ाक, भारतीय एयरलाइनों के इतिहास की दर्दनाक सच्चाई को बयां करता है। साल 1991 के उदारीकरण के बाद से भारत ने कम-से-कम दो दर्जन एयरलाइनों को दफनाया है। हर बड़ा सपना—चाहे वह जेट एयरवेज (Jet Airways) की प्रीमियम सर्विस रही हो, या किंगफिशर एयरलाइंस (Kingfisher Airlines) का लग्जरी दांव—अंत में कर्ज, कोर्ट-कचहरी और जमीन पर खड़े जहाजों में खत्म हुआ।
यह ‘एयरलाइन कब्रगाह’ बनने की मुख्य वजह वह ‘संरचनात्मक जाल’ है जो आज भी नहीं टूटा है।

1990 का पहला झटका: उदारीकरण और त्वरित पतन
1991 के आर्थिक संकट और उदारीकरण के बाद, निजी एयरलाइंस को Indian aviation में उड़ान भरने की अनुमति मिली। नई एयरलाइंस की बाढ़ आ गई, जिनमें ईस्ट-वेस्ट एयरलाइंस, जेट एयरवेज, दमानिया एयरवेज (Damania Airways), मोदीलुफ्त (Modiluft), और एनईपीसी प्रमुख थीं। इन सबका लक्ष्य एक ही था: सरकारी इंडियन एयरलाइंस को टक्कर देना।

ईस्ट-वेस्ट एयरलाइंस: 1992 में देश की पहली प्राइवेट शेड्यूल्ड एयरलाइन बनी। उसने इंडियन एयरलाइंस से भी सस्ता किराया रखा। 1995 तक बैंक ने लोन बंद कर दिया, बेड़ा जमीन पर आ गया। 1996 तक यह पूरी तरह बंद हो गई।
दमानिया एयरवेज: इसने बॉम्बे-गोवा जैसे छोटे रूटों पर प्रीमियम सर्विस, गर्म खाना और ज्यादा लेग रूम का दांव लगाया। लेकिन चार साल भी नहीं चली, क्योंकि किराये से परिचालन लागत कवर नहीं हो पाई। 1997 में इसे बंद कर दिया गया।
एयर सहारा (Air Sahara): 1993 में लॉन्च हुई, यह उस दौर की सबसे महत्वाकांक्षी एयरलाइन थी। इसने बॉम्बे-दिल्ली का वन-वे किराया ₹2,999 रखा, जब इंडियन एयरलाइंस ₹6,000 से ऊपर वसूल रही थी। 1997-98 के पूर्वी एशियाई वित्तीय संकट ने इसे करारी चोट दी, जब रुपये के मुकाबले डॉलर उछला और लीज का किराया 20% तक बढ़ गया। अंततः 2007 में इसे जेट एयरवेज को बेच दिया गया और इसका नाम जेटलाइट (JetLite) रखा गया। 2019 में जेट एयरवेज के पतन के साथ ही जेटलाइट भी दफन हो गई।
मोदीलुफ्त: 1993 में मोदी परिवार और जर्मन दिग्गज लुफ्थांसा ने मिलकर इसे शुरू किया। लेकिन 1996 में पैसे के इस्तेमाल को लेकर हुए झगड़े के बाद, लुफ्थांसा ने रातों-रात अपने सारे जहाज वापस ले लिए, जिससे एयरलाइन तुरंत बंद हो गई।

विदेशी कॉर्पोरेशन का पलायन:
मोदीलुफ्त के मामले में, जर्मन साझेदार लुफ्थांसा ने सिर्फ तीन साल में ही अपने जहाज वापस खींच लिए, जो दिखाता है कि विदेशी सहयोगियों ने भी भारतीय एविएशन मार्केट की अस्थिरता को जल्दी भांप लिया। यह विदेशी निवेश का पहला बड़ा पलायन था, जिसने भारतीय बाजार के जोखिमों को उजागर किया।

2000 का लो-कॉस्ट बूम और कर्ज़ का जाल
2003 में, कैप्टन गोपीनाथ की एयर डेक्कन (Air Deccan) ने ‘चप्पल वाले भी उड़ेंगे’ के नारे के साथ कम-लागत वाहक (LCC) मॉडल का सूत्रपात किया। इसने किराया ट्रेन से भी सस्ता कर दिया। इसके पीछे-पीछे स्पाइसजेट और इंडिगो भी आए।
किंगफिशर एयरलाइंस: विजय माल्या ने एयर डेक्कन का अधिग्रहण किया, लेकिन LCC मॉडल को लग्जरी सर्विस में बदलने की गलती की। अत्यधिक कर्ज़ और परिचालन लागत के कारण 2012 में यह 8,000 करोड़ रुपये से अधिक के कर्ज़ के साथ डूब गई।
जेट एयरवेज: 1990 के दशक की एकमात्र जीवित एयरलाइन थी, जिसने लंबे समय तक प्रीमियम सर्विस के साथ कब्रिस्तान के नियम को चुनौती दी। लेकिन, 2019 में, बढ़ते कर्ज, ईंधन की ऊंची लागत और LCC की प्रतिस्पर्धा के सामने यह भी ढेर हो गई।
क्षेत्रीय प्लेयर: इस दौर में पैरामाउंट, एयर कोस्टा (Air Costa), एयर पेगासस, एयर ओडिशा और डेक्कन 360 जैसे कई क्षेत्रीय खिलाड़ी भी आए और चले गए, जो साबित करता है कि क्षेत्रीय मार्गों पर भी लाभ कमाना मुश्किल रहा।
गो फर्स्ट (Go First): यह LCC मॉडल पर चलने वाली एक और सफल दिखने वाली एयरलाइन थी, जिसने मई 2023 में प्रैट एंड व्हिटनी इंजन समस्याओं के कारण दिवालिया घोषित कर दिया।

एक और चूकता मामला: एयर एशिया इंडिया (AirAsia India) और विदेशी निकास
एक महत्वपूर्ण मामला जो अक्सर छूट जाता है, वह है एयर एशिया इंडिया। यह टाटा संस और मलेशियाई एयर एशिया (AirAsia) का एक संयुक्त उद्यम था। 2014 में शुरू हुई यह एयरलाइन कभी भी महत्वपूर्ण बाजार हिस्सेदारी हासिल नहीं कर पाई और लगातार घाटे में रही। 2020 में, एयर एशिया ने भारतीय परिचालन से पूरी तरह बाहर निकलने की घोषणा की और टाटा संस ने एयर एशिया इंडिया में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाकर 83.67% कर दी, और अंततः इसे एयर इंडिया एक्सप्रेस में मिला दिया गया। मलेशियाई दिग्गज का यह पलायन भी भारतीय एविएशन के ‘जाल’ को दिखाता है, जिसने एक मजबूत विदेशी साझीदार को भी टिकने नहीं दिया।

कब्रगाह बनने के प्रमुख कारण (संरचनात्मक चुनौतियां)
Indian aviation कंपनियों के पतन के पीछे एक ही शाश्वत ‘जाल’ है, जिसे ‘स्ट्रक्चरल चैलेंज’ कहते हैं:
चुनौती का क्षेत्र | भारतीय बाजार की वास्तविकता | प्रभाव |
ईंधन लागत (ATF Cost) | एटीएफ (जेट फ्यूल) भारतीय एयरलाइंस की परिचालन लागत का 40-45% खा जाता है, जो वैश्विक औसत से काफी अधिक है, क्योंकि सरकारें इस पर भारी टैक्स लगाती हैं। | लाभ मार्जिन लगभग शून्य हो जाता है। |
मुद्रा अस्थिरता (Rupee-Dollar Volatility) | विमान लीज का किराया, मेंटेनेंस, और इंजन का भुगतान डॉलर में होता है। रुपया-डॉलर अस्थिरता से लीज का किराया रातों-रात 20% तक उछल सकता है। | पूंजी की कमी वाली एयरलाइनों के लिए वित्तीय संकट आता है। |
किराया प्रतिस्पर्धा (Airline Competition) | बाजार में अत्यधिक प्रतिस्पर्धा है। यात्रियों को बनाए रखने के लिए एयरलाइंस ‘किराये के कॉम्पिटिशन’ में उतर जाती हैं, जिससे किराया लागत से भी कम हो जाता है। | LCC (Low-Cost Carriers) के बावजूद, ‘ब्लडबाथ’ प्राइसिंग से सभी घाटे में चलते हैं। |
परिसंपत्ति/पूंजी मॉडल | अधिकांश एयरलाइंस ने जहाज 100% लीज पर लिए, और उनकी अपनी इक्विटी (पूंजी) लगभग शून्य रही। | नकदी प्रवाह रुकते ही, लीजदाता (Lender) जहाज जब्त कर लेते हैं, और कंपनी तुरंत बंद हो जाती है। |
नियामक बोझ | नए FDTL (Flight Duty Time Limitations) नियम जैसे कड़े नियामक बदलाव परिचालन लागत और पायलटों की कमी को बढ़ाते हैं। | परिचालन की लचीलापन कम होती है और खर्च बढ़ता है। |
जो अभी भी सांस ले रहे हैं: इंडिगो, एयर इंडिया, स्पाइसजेट और अकासा
आज, Indian aviation का बाजार मुख्य रूप से कुछ प्रमुख खिलाड़ियों के बीच सिमट गया है, जिनमें से हरेक की अपनी चुनौतियाँ हैं:
इंडिगो एयरलाइंस: यह एकमात्र एयरलाइन है जिसने लगातार लाभ कमाया है। इसकी सफलता का मंत्र है ‘नो-फ्रिल्स’ सर्विस, एक ही प्रकार के एयरबस A320/A321 विमानों का बेड़ा (जिससे मेंटेनेंस और पायलट ट्रेनिंग सस्ती होती है), और ऐतिहासिक रूप से ज़ीरो-कर्ज मॉडल। हालांकि, P&W इंजन के मुद्दे और FDTL जैसे नियमों से इसकी पुरानी ताकत पर सवाल उठ रहे हैं।
एयर इंडिया: टाटा समूह के अधिग्रहण ने इसे नई पहचान दी है। बड़े पैमाने पर विमानों के ऑर्डर और पूंजी निवेश से इसे वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा करने का मौका मिला है, लेकिन पुरानी विरासत और भारी कर्ज को ठीक करने में अभी लंबी दौड़ बाकी है।
स्पाइसजेट: यह एक और LCC है जो लगातार वित्तीय चुनौतियों से जूझ रही है और कई बार कर्ज के पुनर्गठन (Debt Restructuring) से गुज़र चुकी है।
अकासा एयर: यह नई LCC है जो अनुभवी हाथों में है। इसने कम लागत और एक नए बेड़े के साथ बाजार में नया दांव लगाया है, लेकिन इसे भी उसी ‘संरचनात्मक जाल’ से निपटना होगा जो उसके पूर्ववर्तियों को लील गया।
यह इतिहास हमें सिखाता है कि Indian aviation में सफल होने के लिए सिर्फ सस्ता किराया या प्रीमियम सर्विस पर्याप्त नहीं है; बल्कि संरचनात्मक लागत चुनौतियों, मुद्रा अस्थिरता और अत्यधिक प्रतिस्पर्धा के सामने भी मजबूत और लचीला वित्तीय मॉडल होना चाहिए। इसीलिए एविएशन का वो सबसे पुराना मज़ाक आज भी सबसे सच्चा है।





