Censorship: जब रील पर लगा था सेंसर का ताला 1975 से 1977 तक लागू रहे आपातकाल के 21 महीनों में न सिर्फ राजनीतिक और सामाजिक आज़ादी पर पाबंदी लगी, बल्कि सिनेमा और कला की दुनिया भी इससे अछूती नहीं रही। सरकार ने सख्त सेंसरशिप लागू करते हुए कई फिल्मों पर रोक लगा दी या उनके कंटेंट में भारी कटौती की गई। कई फिल्मों को रिलीज़ ही नहीं होने दिया गया, जबकि कुछ का फिल्मांकन पूरा होने के बावजूद उनके प्रिंट जब्त कर लिए गए।
आंधी: एक काल्पनिक कहानी, लेकिन समानताएं ज़रूर थीं
गुलजार द्वारा बनाई गई फिल्म आंधी 1975 में आई थी। इसमें अभिनेत्री सुचित्रा सेन ने एक महिला नेता ‘आरती देवी’ का किरदार निभाया, जिसे देखकर लोगों को इंदिरा गांधी की छवि नज़र आने लगी, खासकर उनके बालों की सफेद धारियों की वजह से। भले ही निर्माताओं ने इसे काल्पनिक कहानी बताया, लेकिन सरकार ने फिल्म पर रोक लगा दी। आपातकाल खत्म होने के बाद इसे दोबारा रिलीज़ किया गया।
किस्सा कुर्सी का: फिल्म ही जला दी गई
अमृत नाहटा द्वारा बनाई गई किस्सा कुर्सी का सीधे-सीधे उस समय की राजनीति पर व्यंग्य करती थी। फिल्म में मौजूद किरदार ‘गंगाराम’ को संजय गांधी पर आधारित माना गया। इस फिल्म की मूल रीलें जला दी गईं और प्रिंट जब्त कर लिया गया। हालांकि बाद में फिल्म को फिर से बनाया गया, लेकिन तब भी इसे सेंसरशिप का सामना करना पड़ा।
आंदोलन:इतिहास पर भी पाबंदी
लेख टंडन द्वारा निर्देशित फिल्म आंदोलन 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन पर आधारित थी। इसमें एक स्कूल शिक्षक ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आवाज़ उठाता है। इस ऐतिहासिक विषय वाली फिल्म को भी सरकार ने इमरजेंसी के दौरान सेंसर कर दिया।
चंदा मरुथा: कला और कलाकार दोनों पीड़ित
यह फिल्म पी. लंकेश के नाटक पर आधारित थी और इसका निर्देशन पट्टाभि राम रेड्डी ने किया था। उनकी पत्नी स्नेहलता रेड्डी, जो फिल्म में मुख्य भूमिका में थीं, उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और जेल में डाल दिया गया। पैरोल पर रिहाई के कुछ दिन बाद ही उनकी मृत्यु हो गई।
नसबंदी: सरकार की नीतियों पर तंज
आई.एस. जौहर की फिल्म नसबंदी आपातकाल के दौरान जबरन नसबंदी अभियान पर व्यंग्य थी। इसमें उस दौर के बड़े सितारों जैसे अमिताभ, शशि कपूर और मनोज कुमार के हमशक्ल नजर आए। फिल्म का विषय सरकार के लिए असहज था, इसलिए इस पर भी रोक लगा दी गई। बाद में 1978 में इसे रिलीज़ किया गया।
क्रांति की तरंगें: आवाज़ जो दबाई नहीं जा सकी
आनंद पटवर्धन की डॉक्यूमेंट्री क्रांति की तरंगें जेपी आंदोलन और जन आंदोलन की सच्चाई को दिखाती थी। 25 साल की उम्र में उन्होंने यह फिल्म बनाई थी, जब मुख्यधारा का मीडिया सरकार के दबाव में था। इसे इमरजेंसी के दौरान गुपचुप तरीके से देशभर में दिखाया गया।