PM Modi Skipped China Victory Day Parade:1 सितंबर 2025 को चीन के तियानजिन में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) का शिखर सम्मेलन हुआ। इसमें रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन, चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत 20 से ज्यादा देशों के नेता शामिल हुए।
चीन की विक्ट्री डे परेड
सम्मेलन के बाद 3 सितंबर को चीन ने विक्ट्री डे परेड का आयोजन किया। यह परेड जापान के आत्मसमर्पण की 80वीं वर्षगांठ पर हुई। चीन ने इस मौके पर सैन्य ताकत दिखाई और कई नए हथियार प्रदर्शित किए। परेड में पुतिन, किम जोंग उन और शी जिनपिंग साथ नजर आए। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ भी इसमें मौजूद रहे।
मोदी क्यों नहीं गए?
परेड में शामिल न होने को लेकर कई सवाल उठे। विशेषज्ञों का मानना है कि भारत जापान विरोधी संदेश नहीं देना चाहता था, क्योंकि जापान भारत का करीबी दोस्त है।
जेएनयू के प्रोफेसर अरविंद येलेरी ने कहा कि भारत ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ रहा, जापान के खिलाफ नहीं।
प्रोफेसर श्रीपर्णा पाठक का मानना है कि यह परेड चीन के सैन्य प्रदर्शन को समर्थन देने जैसा होता, जो भारत के हित में नहीं है।
वहीं अमिताभ सिंह ने कहा कि भारत ऐसे देशों की लाइन में खड़ा नहीं होना चाहता, जो लोकतांत्रिक और उदारवादी नहीं हैं।
अमेरिका-भारत संबंध और ट्रंप का आरोप
इसी बीच अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने शी जिनपिंग पर रूस और उत्तर कोरिया के साथ मिलकर साज़िश रचने का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि चीन अमेरिका के खिलाफ खड़ा है। हालांकि शी जिनपिंग ने अपने भाषण में साफ कहा कि “चीन किसी की दबंगई से नहीं डरता।”
भारत और अमेरिका के रिश्तों में भी टकराव है। ट्रंप ने भारत पर 50% टैरिफ लगा रखा है। इसके बावजूद विशेषज्ञों का मानना है कि पीएम मोदी का परेड में शामिल न होना ट्रंप की वजह से नहीं, बल्कि भारत की स्वतंत्र रणनीति का हिस्सा था।
भारत-चीन रिश्तों का नया दौर
गलवान घाटी की घटना (2020) के बाद भारत-चीन संबंध बिगड़े थे। लेकिन हाल के दिनों में विदेश मंत्रियों की मुलाकात और पीएम मोदी की चीन यात्रा ने रिश्तों में थोड़ी नरमी दिखाई। मोदी ने एससीओ बैठक में हिस्सा लिया और शी जिनपिंग से द्विपक्षीय मुलाकात भी की। हालांकि, सैन्य परेड से दूरी बनाकर भारत ने साफ कर दिया कि वह चीन के नेतृत्व वाले वर्ल्ड ऑर्डर का हिस्सा नहीं बनना चाहता।
पीएम मोदी का चीन की परेड से दूर रहना एक सोच-समझा कदम था। भारत लोकतांत्रिक और उदारवादी देशों के साथ खड़ा दिखना चाहता है, न कि उन शक्तियों के साथ जो सैन्य ताकत दिखाकर वैश्विक वर्चस्व जमाना चाहती हैं।