‘अब भगवान हमें धर ले…’ आश्रम में आए गीता मनीषी ज्ञानानंद महाराज से मिलकर रो पड़े प्रेमानंद महाराज 

प्रेमानंद महाराज से मिलने गीता मनीषी ज्ञानानंद महाराज पधारे। बातचीत के दौरान प्रेमानंद महाराज ने विनम्र भाव से कहा कि प्रभु की उन पर विशेष कृपा है, अन्यथा वे स्वयं को इस योग्य नहीं मानते। उनके अनुसार न तो यह शरीर और न ही यह मन किसी प्रकार से योग्य है — सब कुछ ईश्वर की असीम करुणा का ही परिणाम है।

Premananda Maharaj

Premananda Maharaj : प्रेमानंद महाराज की अस्वस्थता का समाचार सुनकर श्रीराधा हेति केलि कुंज आश्रम में इन दिनों संतों का लगातार आगमन हो रहा है। भक्तों और साधु-संतों का यह स्नेहपूर्ण आना-जाना आश्रम के वातावरण को और अधिक आध्यात्मिक बना रहा है।

हाल ही में मलूक पीठाधीश्वर राजेंद्र दास महाराज और गीता मनीषी ज्ञानानंद महाराज प्रेमानंद महाराज से मिलने पहुंचे। दोनों संतों को देखते ही प्रेमानंद महाराज श्रद्धा से अपने आसन से उठ खड़े हुए और नतमस्तक होकर प्रणाम किया। उन्होंने स्वयं उनके चरण धोए और पुष्प अर्पित कर विनम्रता से उनका स्वागत किया।

संतों के बीच हुआ आध्यात्मिक संवाद

भेंट के दौरान प्रेमानंद महाराज और ज्ञानानंद महाराज के बीच गहन आध्यात्मिक चर्चा हुई। दोनों संतों ने एक-दूसरे को स्नेहपूर्वक आलिंगन दिया। ज्ञानानंद महाराज ने कहा — “यह स्थान स्वयं अनुभवों का केंद्र है, यहां हर कण में ठाकुरजी की लीला रमी हुई है। प्रभु ने हमारी सेवा यहीं लगाई है।” उन्होंने प्रेमानंद महाराज को भगवद् गीता की प्रति भेंट करते हुए कहा, “यह ग्रंथ केवल ज्ञान का स्रोत नहीं, बल्कि सेवा और साधना का मार्ग है। यह सब प्रभु की कृपा से ही संभव है।” वार्तालाप के दौरान प्रेमानंद महाराज ने अत्यंत विनम्र स्वर में कहा कि “प्रभु का मुझ पर विशेष स्नेह है, अन्यथा मुझ जैसा अधम किसी भी योग्य नहीं। यह शरीर और यह मन दोनों ही किसी पात्रता के योग्य नहीं हैं। यदि भगवान चाहें तो अब वे हमें अपने चरणों में स्थान दें, क्योंकि हमें संतों का संग और दर्शन प्राप्त हुआ है — यही परम सौभाग्य है।”

ज्ञानानंद महाराज ने क्या कहा ? 

ज्ञानानंद महाराज ने एक गूढ़ विषय पर प्रकाश डालते हुए कहा, “छूटना और छोड़ना — ये दोनों शब्द दिखने में समान हैं, पर अर्थ में बहुत भिन्न हैं। ‘छूटना’ तब होता है जब किसी कारणवश या प्रमादवश नियम या साधना टूट जाती है। पर ‘छोड़ना’ का भाव है — धीरे-धीरे अपने भीतर ऐसा वैराग्य लाना कि वह वस्तु या आसक्ति स्वाभाविक रूप से अपने आप छूट जाए। यही साधना की चरम अवस्था है।”

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इस पर प्रेमानंद महाराज ने कहा, “यदि हम किसी बंधन या आसक्ति को जानबूझकर भी छोड़ने का संकल्प लें, तो धीरे-धीरे मन वहां से हट जाता है। हमें साधना के सभी अंगों को धैर्यपूर्वक अपनाते हुए आगे बढ़ना चाहिए। जब साधना पूर्ण होती है, तो अंततः सब कुछ स्वयं शांत हो जाता है।”

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