Religious News : कुंभ मेला भारत के सबसे बड़े और पवित्र धार्मिक आयोजनों में से एक है, जो हर 12 साल में आयोजित होता है। यह मेला न केवल धार्मिकता का प्रतीक है, बल्कि भारत की सांस्कृतिक विरासत को भी दर्शाता है। कुंभ मेले में लाखों श्रद्धालु और साधु-संत भाग लेते हैं। आइए, जानते हैं कुंभ मेले से जुड़ी 12 रोचक बातें।
नागा साधुओं का पहला स्नान
कुंभ मेले की शुरुआत नागा साधुओं के पहले स्नान से होती है। नागा साधु को धर्म का रक्षक माना जाता है, और उनकी उपस्थिति मेले को विशेष महत्व देती है। इन साधुओं का पहला स्नान ‘शाही स्नान’ कहलाता है। यह आयोजन सुबह के समय होता है, जब सभी नागा साधु पवित्र नदी में डुबकी लगाकर मेले की शुरुआत करते हैं। उनकी परंपरागत वेशभूषा और अनुशासन देखने योग्य होते हैं।
नदी का जल स्तर बढ़ता है
कुंभ मेले के दौरान पवित्र नदियों का जल स्तर बढ़ जाता है। जहां यह घटना विज्ञान को चौंकाती है।और धर्म के नजरिए से महत्वपूर्ण मानी जाती है। धार्मिक मान्यता के अनुसार, कुंभ के समय देवी-देवता और पितर नदी में प्रवेश करते हैं, जिससे जल स्तर बढ़ता है। इसके अलावा, लाखों श्रद्धालुओं के स्नान करने और पानी का उपयोग करने से भी जल स्तर में कोई कमी नहीं आती है।
14 अखाड़ों की पेशवाई
कुंभ मेले में 14 अखाड़ों की पेशवाई का आयोजन होता है। पहले यह संख्या 13 थी, लेकिन 2019 से किन्नर अखाड़ा भी इसमें शामिल हो गया है। अखाड़ों की पेशवाई में साधु-संत पारंपरिक झांकियों के साथ मेले में प्रवेश करते हैं। यह दृश्य बहुत ही भव्य और रंगीन होता है। हर अखाड़ा अपनी विशिष्टता और परंपराओं के साथ मेले की शोभा बढ़ाता है।
हर 144 साल में महाकुंभ
धार्मिक ग्रंथों के मुताबिक, जब कुल 12 पूर्णकुंभ मेलों का आयोजन हो जाता है, तब एक महाकुंभ का आयोजन होता है|
महाकुंभ विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक आयोजन है, जो हर 144 साल में केवल प्रयागराज में आयोजित होता है। सामान्य कुंभ मेला हर 12 साल में चार स्थानों पर होता है, लेकिन महाकुंभ की भव्यता अनुपम होती है। इसे देखने के लिए दुनियाभर से लोग आते हैं। इस आयोजन की खास बात यह है कि यह केवल पवित्र ग्रहों की स्थिति के आधार पर आयोजित किया जाता है।
सम्राट हर्षवर्धन का योगदान
कुंभ मेले का संबंध पौराणिक कथाओं के अनुसार सागर मंथन से है। हालांकि, इसका आधुनिक स्वरूप सम्राट हर्षवर्धन ने दिया। 7वीं शताब्दी में उन्होंने कुंभ मेले को भव्य आयोजन में बदल दिया। इसके बाद शंकराचार्य ने इसके नियम बनाए और इसे साधु-संतों के सम्मेलन का मुख्य केंद्र बना दिया।
ग्रहों का महत्व
कुंभ मेले के आयोजन में ग्रहों की स्थिति का विशेष महत्व है। सूर्य, चंद्रमा, गुरु और शनि की स्थिति के अनुसार कुंभ मेले की तिथियां तय होती हैं। धार्मिक मान्यता है कि इन ग्रहों ने अमृत कलश की रक्षा की थी। यही कारण है कि इनकी स्थिति के आधार पर मेले की तिथियां निर्धारित की जाती हैं।
स्वर्ग और पृथ्वी पर कुंभ
धार्मिक मान्यता है कि कुंभ मेले का आयोजन केवल पृथ्वी पर ही नहीं, बल्कि स्वर्ग में भी होता है। महाकुंभ के दौरान ऐसा माना जाता है कि देवलोक में भी कुंभ मनाया जाता है। यह समय स्वर्ग और पृथ्वी के बीच आध्यात्मिक ऊर्जा का आदान-प्रदान करने के लिए खास माना जाता है।
साधु-संतों और श्रद्धालुओं का मेला
कुंभ मेला साधु-संतों और श्रद्धालुओं के संगम का पर्व है। यह मकर संक्रांति से शुरू होकर महाशिवरात्रि तक करीब 50 दिनों तक चलता है। इस दौरान देश-विदेश से लोग यहां आते हैं। साधु-संतों के प्रवचन, भजन और विभिन्न धार्मिक अनुष्ठान मेले को विशेष बनाते हैं।
2025 में पूर्ण कुंभ
इस साल प्रयागराज में पूर्ण कुंभ का आयोजन होगा। शास्त्रों के अनुसार, जब सूर्य और चंद्रमा मकर राशि में और गुरु मेष राशि में होते हैं, तब कुंभ मेले का आयोजन किया जाता है। ज्योतिषीय गणना के अनुसार यह समय सबसे शुभ माना जाता है।
राशियों का चक्र
गुरु ग्रह हर 12 साल में 12 राशियों का चक्र पूरा करता है। इसी वजह से हर 12 साल में चार पवित्र स्थानों में से किसी एक पर कुंभ का आयोजन होता है। इसके अलावा, हर तीसरे साल इन चार स्थानों में से किसी एक पर अर्धकुंभ आयोजित किया जाता है।
सिंहस्थ कुंभ
सिंहस्थ कुंभ का आयोजन नासिक और उज्जैन में किया जाता है। यह तब होता है, जब गुरु ग्रह सिंह राशि में होते हैं। सिंहस्थ कुंभ इन दोनों स्थलों की एक विशेष पहचान है। यह आयोजन अन्य कुंभ मेलों से थोड़ा अलग होता है।
संकल्प लेने का महत्व
कुंभ में स्नान करना केवल धार्मिक परंपरा ही नहीं, बल्कि आत्मशुद्धि का माध्यम भी है। श्रद्धालु इस दौरान अपनी बुरी आदतों को छोड़ने का संकल्प लेते हैं। यह आत्मिक और मानसिक विकास का एक अनूठा अवसर होता है।