नई दिल्ली ऑनलाइन डेस्क। ‘टाइगर ऑफ झारखंड’ जब दहाड़ता तो जंगल के हर कोने में उसकी आवाज सुनाई देती। जब आदिवासियों का मसीहा अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरता तो झारखंड मुस्कराता। शान ऐसी की जंगल के देवता की पूजा दिल्ली दरवार तक में होती। अटल जी से लेकर सोनिया गांधी भी हजारीबाग जिले के नामरा गांव निवासी शीबू सोरेन के दीवाने थे। तभी तो दाड़ी वाले बाबा जी का नाम ’दिशोम गुरु’ पड़ा। महाजनी प्रथा के खिलाफ यलगार कर जंगल से निकले और देश ही नहीं बल्कि दुनिया में अपनी पहचान बनाई। सीएम चुने गए। केंद्र में मंत्री बनाए गए। बेटों के लिए सियासी जमीन तैयार की। बड़े बेटे विधायक निर्वाचित हुए। बहू भी जनप्रतिनिधि बनी। छोटे बेटे हेमंत सोरेन भी राजनीति में आए और लगातार दूसरी बार मुख्यमंत्री बनकर इतिहास रच दिया।
हां हम बात कर पूर्व सीएम शीबू सोरेन की, जिन्होंने सोमवार को इस दुनिया को अलविदा कह दिया। आदिवासियों के मसीहा शीबू और झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के संस्थापक और झारखंड आंदोलन के दिग्गज नेता शिबू सोरेन का दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल में निधन हो गया। 81 वर्षीय शिबू सोरेन, जिन्हें ’दिशोम गुरु’ के नाम से जाना जाता है, लंबे समय से ब्रेन स्ट्रोक और किडनी की बीमारी से जूझ रहे थे। उनके निधन से झारखंड में शोक की लहर है और विशेष रूप से जमशेदपुर, जहां उनका आंदोलन गहरा प्रभाव छोड़ गया। वहां भी उनको श्रद्धांजलि दी जा रही है। बताया जा रहा है कि ’दिशोम गुरु’ का पार्थिक शरीर उनके पैतृक गांव लेकर जाएगा। जहां उनके पार्थिक शरीर का अंतिम संस्कार किया जाएगा। शीबू सोरेन के परिवार की तरफ से अभी इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है।
झारखंड के नेमरा गांव के आदिवासी परिवार में जन्मे शिबू सोरेन लाखों-करोड़ों आदिवासियों के लिए किसी भगवान से कम नहीं थे। शिबू सोरेन के समर्थक उनकी एक झलक पाने के लिए हर वर्ष दो फरवरी को झारखंड की उपराजधानी दुमका में देर रात तक जमे रहते थे। शिबू सोरेन जब अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरते थे तो उनके समर्थक जोश से भर जाते थे। लंबी बाल-दाढ़ी वाले इस करिश्माई नेता ने झारखंड बनवाने से लेकर आदिवासी समाज को राजनीतिक पहचान दिलाने तक बड़ी भूमिका निभाई। उन्होंने जंगल से दिल्ली तक की सियासत में अपनी हनक बरकरार रखी। जानकार बताते हैं कि आजादी से तीन साल पहले 11 जनवरी 1944 को जन्में शिबू सोरेन का बचपन मुश्किलों से भरा था। उनके पिता सोबरन मांझी की गिनती उस इलाके में सबसे पढ़े लिखे आदिवासी शख्सियत के रूप में होती थी।
शिबू सोरेन के पिता पेशे से एक शिक्षक थे। शीबू सोरेन के पिता की सूदखोरों और महाजनों से उनकी बिल्कुल नहीं बनती थी। इसकी सबसे बड़ी वजह सूदखोरों और महाजनों का उस वक्त आदिवासियों के प्रति बर्ताव था। शिबू सोरेन के सिर से बचपन में ही पिता का साया उठ गया था। शिबू सोरेन के पिता सोबरन सोरेन को महाजनों ने उनकी जमीन के लिए मार डाला। यह घटना शिबू सोरेन के जीवन का ऐसा मोड़ बन गई जिसने उनके दिल में न्याय और समानता की ज्वाला जला दी। इसके बाद शिबू सोरेन ने लकड़ी बेचने का काम शुरू कर दिया। शिबू सोरेन ने महाजनी प्रथा के खिलाफ आवाज उठाने का संकल्प लिया। उन्होंने अपने गांव के आदिवासियों को संगठित किया और ’धानकटनी आंदोलन’ शुरू किया। शिबू सोरेन का यह आंदोलन केवल उनके साहस को ही नहीं दर्शाता है, बल्कि एक ऐसा इतिहास रचता है, जिसने झारखंड के आदिवासियों को उनकी शक्ति का एहसास कराया था।
शिबू सोरेन ने पहला लोकसभा चुनाव 1977 में लड़ा था, लेकिन उस चुनाव में उन्हें हार मिली थी। वह पहली बार 1980 में लोकसभा सांसद चुने गए। इसके बाद शिबू 1989, 1991 और 1996 में लोकसभा चुनाव जीते। 2002 में वह राज्यसभा में पहुंचे। इसी साल उन्होंने राज्यसभा से इस्तीफा देकर दुमका से लोकसभा का उपचुनाव जीता। झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना की और उनके नेतृत्व में यह संगठन झारखंड राज्य के निर्माण की लड़ाई में अग्रणी बन गया। उनका उद्देश्य केवल एक अलग राज्य बनाना नहीं था, बल्कि यह सुनिश्चित करना था कि आदिवासियों के अधिकार और सम्मान की रक्षा होय उनके संघर्ष और आंदोलन के कारण 2000 में झारखंड राज्य अस्तित्व में आया। शिबू सोरेन तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री बने, लेकिन पांच साल का कार्यकाल एक बार भी पूरा नहीं कर सके। एक कद्दावर आदिवासी नेता और झारखंड मुक्ति मोर्चा पार्टी के संस्थापक सदस्य, उन्होंने 38 वर्षो तक झारखंड मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया।
शीबू सोरेन का राजनीतिक जीवन विवादों से भरा रहा है। वो पहली बार मार्च 2005 में झारखंड के मुख्यमंत्री बने, लेकिन 9 दिन के बाद ही उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। इसके बाद 2008 में दोबारा झारखंड के सीएम बने, लेकिन छह महीने के बाद ही उनकी कुर्सी चली गई। इसके बाद तीसरी बार 2009 में मुख्यमंत्री बने थे। लेकिन कुछ महीनों बाद ही बीजेपी से समर्थन न मिलने पर वह बहुमत साबित नहीं कर सके और उन्हें मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा देना पड़ा था। सोरेन के 2006 में केंद्र सरकार में कोयला मंत्री रहने के दौरान दिल्ली की एक अदालत ने उन्हें अपने सचिव शशि नाथ की हत्या का दोषी माना था। हत्या के मामले में उन्हे ंजेल भी जाना पड़ा तो भ्रष्टाचार के मामले में भी उन पर कानूनी शिकंजा कसा। शीबू सोरेन 1980, 1989, 1991, 1996, 2002 और 2004 में सांसद बने. इसके अलावा 2009 और 2014 में भी सांसद चुने गए। इस तरह से छह बार लोकसभा संसद रहे और दो बार राज्यसभा सदस्य रहे।
संसद रहते हुए दिल्ली की सियासत में अपनी हनक को बरकरार रखा था। यूपीए से लेकर एनडीए सरकार को उन्होंने समर्थन दिया। ऐसे में उन्होंने अपनी राजनीतिक विरासत अपने बेटे हेमंत सोरेन को सौंप दी, जो राज्य के मुख्यमंत्री हैं। शीबू सोरेन ने अपनी राजनीति जंगल से शुरू की। आदिवासी उन्हें भगवान मानते थे। आदिवासियों के घरो में आज भी ’दिशोम गुरु’ की तस्वीर मिल जाएगी। ’दिशोम गुरु’ ने आदिवासियों के लिए बहुत काम किए। इन्हीं के चलते आदिवासियों को अपना खुद का झारखंड राज्य मिला। शीबू सोरेन ने माओवाद के खिलाफ भी जंग लड़ी। ’दिशोम गुरु’ ने लोगों को बंदूक झोड़कर मुख्यधारा में लौटने को लेकर कई योजनाएं भी चलाई। जिसका असर प्रदेश में दिखा। जानकार बताते हैं कि झारखंड में मोओवाद को जड़ से खत्म करने में अहम भूमिका शीबू सोरेन की भी रही है।