नई दिल्ली: बिलकिस बानो मामले के दोषियों की रिहाई के खिलाफ दायर याचिका को लेकर नया अपडेट सामने आया है, जस्टिस बेला त्रिवेदी ने सुप्रीम कोर्ट में दायर पुनर्विचार याचिका की सुनवाई से खुद को अलग कर लिया है. अब मामले की सुनवाई वह बेंच करेगी, जिसकी सदस्य जस्टिस बेला त्रिवेदी नहीं होंगी. साल 2002 में हुए दर्दनाक हादसे को लेकर बिलकिस ने अपने साथ गैंगरेप और परिवार के लोगों की हत्या के दोषियों की रिहाई का विरोध किया.
बिलकिस बानो की पुनर्विचार याचिका में मांग की गई है कि 13 मई के आदेश पर दोबारा विचार किया जाए. लेकिन 13 मई में सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट द्वारा ये आदेश दिया गया था की गैंगरेप के दोषियों की रिहाई में 1992 में बने नियम लागू होंगे. इसी आधार पर 11 दोषियों की रिहाई हुई है. सुप्रीम कोर्ट ने 21 अक्टूबर को इस मामले में नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन वुमन की ओर से दाखिल याचिका को मुख्य याचिका के साथ जोड़ कर आदेश दिया था.
बिलकिस के परिवार के 7 सदस्यों हुई थी हत्या
इसके साथ ही याचिका में गुजरात सरकार के दोषियों की रिहाई के आदेश को तत्काल रद्द करने की मांग की गई है. फिर 17 अक्टूबर को गुजरात सरकार ने एक हलफनामा दायर किया और कहा कि बिलकिस बानो गैंगरेप मामले के दोषियों को उनकी सजा के 14 साल पूरे होने और जेल में उनके अच्छे व्यवहार के कारण रिहा कर दिया है. साथ ही उस हलफनामे में यह भी लिखा था की दोषियों की रिहाई केंद्र सरकार की अनुमति के बाद की गई है.
दोषियों को अच्छे व्यवहार के कारण रिहा किया गया
गुजरात सरकार द्वारा दोषियों की रिहाई का फैसला सुप्रीम कोर्ट के 9 जुलाई 1992 के दिशा-निर्देश के आधार पर किया गया है न कि आजादी के अमृत महोत्सव की वजह से लिया गया. गुजरात सरकार ने बताया कि बिलकिस बानो के दोषियों की समय से पहले रिहाई का एसपी, सीबीआई, सीबीआई के स्पेशल जज ने विरोध किया था. बिलकिस बानो गैंगरेप केस के दोषियों ने 24 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट में अपना जवाब दाखिल किया था.
गुजरात सरकार का रिहाई का फैसला कानूनी तौर पर लिया
जवाब में कहा गया था कि गुजरात सरकार का उनकी रिहाई का फैसला कानूनी तौर पर ठीक है। उनकी रिहाई के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ता सुभाषिनी अली और महुआ मोइत्रा का केस से कोई संबंध नहीं है। आपराधिक केस में तीसरे पक्ष के दखल का कोई औचित्य नहीं बनता है। दोषियों के जवाब में कहा गया था कि उनकी रिहाई के खिलाफ न तो गुजरात सरकार ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है और न ही पीड़ित ने। यहां तक कि इस मामले के शिकायतकर्ता ने भी कोर्ट का दरवाजा नहीं खटखटाया है। ऐसे में कानून की स्थापित मान्यताओं का उल्लंघन होगा.
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