जिस गेहूँ को हम हिंदुस्तानी प्राचीन काल से खाते हुए आ रहे हैं। असल में वो गेहूँ हिंदुस्तानी अनाज नहीं बल्कि विदेशी अनाज हैं। जी बिलकुल सही सुना आपने जिस गेहूँ का हम और हमारे पूर्वज पुराने समय से सेवन कर रहे वो भारत का नहीं बल्कि मध्य एशिया और अमेरिका की फसल है, आक्रांताओ के भारत आने के साथ यह अनाज भारत आया था उससे पहले भारत में जौ की रोटी बहुत लोकप्रिय थी और मौसम अनुसार मक्का, बाजरा, ज्वार आदि भारतीयों के मांगलिक कार्यों में भी जौ अथवा चावल (अक्षत) ही चढाए जाते रहे हैं। प्राचीन ग्रंथों में भी इन्हीं दोनों अनाजों का अधिकतम जगहों पर उल्लेख है पूरे अमेरिका में इन दिनों गेंहू को त्यागने का अभियान चल रहा है. इसके पीछे अमेरिका के एक हृदय रोग विशेषज्ञ डॉ विलियम डेविस द्वारा लिखी एक पुस्तक है। जिसका नाम है Wheat belly (गेंहू की तौंद)। यह पुस्तक फूड हेबिट पर लिखी गई है। अब ऐसा लग रहा हैं कि कल यह अभियान यूरोप होते हुये भारत भी आएगा।
मोटापा और डायबिटिज
डॉ डेविस का मानना है कि पूरी दुनिया को अगर मोटापे, डायबिटिज और हृदय रोगों से स्थाई मुक्ति चाहिए तो उन्हें पुराने भारतीयों की तरह मक्का, बाजरा, जौ, चना, ज्वार या इन सबका मिक्स (सामेल) अनाज ही खाना चाहिये । केवल गेंहू नहीं। भारत में 1980 के बाद से लगातार सुबह शाम गेहूं खा खाकर हम मोटापे और डायबिटिज के मामले में दुनिया की राजधानी बन चुके हैं। आज 77 प्रतिशत भारतीय ओवरवेट हैं ।यह तब है जब इतने ही प्रतिशत भारतीय कुपोषित भी हैं। फिर भी 35 पार का हर दूसरा भारतीय अपनी तोंद घटाना चाहता हैं।
गेहूँ भारत का ही अनाज हैं
डॉ विलियम डेविस ने गेहूं के दुष्प्रभाव बताये हैं। लेकिन डॉ डेविस मॉडर्न गेहूं के खिलाफ हैं । वह आज के गेहूं को गेहूं नहीं मानते। डॉ डेविस का कहना है कि जो गेहूं हमारे दादा परदादा खाते थे वही सही था। डॉ डेविस की बातों का कोई वैज्ञानिक या रीसर्च आधार नहीं हैं सो इसे कई संगठन खारिज करते हैं।दूसरी बात यह कि ग्लूटेन एलर्जी भारत में नहीं होती है। यह अमेरिका और यूरोप के लोगों में पाई जाती है। तीसरी बात यह कि गेहूं मोहनजोदड़ो युग से भारत में है सो इसे विदेशी अनाज कहना गलत है। यानि गेहूँ भारत का ही अनाज हैं। बेसक इसकी शुरुआत कही से ही क्यों नहीं हुई हो।
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