Babu Gulab Ray Hindi literature contribution आज ही के दिन, 13 अप्रैल 1963 को हिंदी साहित्य ने अपने एक अनमोल रत्न को खो दिया था।बाबू गुलाबराय। वे ऐसे लेखक थे, जिनके शब्दों ने न सिर्फ पाठकों को प्रभावित किया, बल्कि हिंदी भाषा को चिंतन और दर्शन की भाषा के रूप में स्थापित करने में भी अहम योगदान दिया। उन्होंने अपने लेखन से यह साबित कर दिया कि गंभीर विचार भी सादगी के साथ पेश किए जा सकते हैं।
इटावा में जन्म, आगरा में शिक्षा
बाबू गुलाबराय का जन्म 17 जनवरी 1888 को उत्तर प्रदेश के इटावा में हुआ था। उनके पिता भवानी प्रसाद न्यायिक सेवा में मुंसिफ के पद पर कार्यरत थे। घर का माहौल धार्मिक था, जिससे गुलाबराय का झुकाव विचारशीलता और आत्ममंथन की ओर हुआ। उन्होंने आगरा कॉलेज से दर्शनशास्त्र में एमए और फिर एलएलबी की पढ़ाई पूरी की।
लेखन की शुरुआत अंग्रेजी में, लेकिन चुनी हिंदी
शुरुआत में गुलाबराय ने अंग्रेजी भाषा में दार्शनिक निबंध लिखे। लेकिन जल्द ही उन्हें एहसास हुआ कि भारत के लोगों से जुड़ने के लिए हिंदी सबसे उपयुक्त माध्यम है। इसके बाद उन्होंने ‘शांति धर्म’ और ‘मैत्री धर्म’ जैसी हिंदी रचनाएं लिखीं, जो आम लोगों तक उनके विचारों को पहुंचाने का जरिया बनीं।
छतरपुर रियासत में निभाई अहम भूमिका
बाबू गुलाबराय ने मध्य प्रदेश की छतरपुर रियासत में भी महत्वपूर्ण कार्य किया। वे महाराजा विश्वनाथ सिंह जूदेव के साथ करीब 18 वर्षों तक रहे, जहां उन्होंने सलाहकार, सचिव और न्यायाधीश जैसे कई जिम्मेदार पदों को संभाला। बाद में वे आगरा लौटे और अपना पूरा समय लेखन और शिक्षा को समर्पित कर दिया।
सरल भाषा, लेकिन गहराई से भरे विचार
बाबू गुलाबराय के लेखन की खासियत थी उनकी सहज और साफ भाषा, जिसमें वे गहरी बातें बड़े हल्के अंदाज में कह जाते थे। ‘मेरी असफैलें’, ‘ठलुआ क्लब’ और ‘कुछ उठे, कुछ गहरे’ जैसी रचनाएं उनकी इसी शैली की मिसाल हैं। इसके साथ ही उन्होंने ‘नवरस’ और ‘हिंदी साहित्य का सुबोध इतिहास’ जैसी पुस्तकों के ज़रिए साहित्य की गंभीर आलोचना भी की।
साहित्य में अमिट छाप
बाबू गुलाबराय ने हिंदी को केवल अभिव्यक्ति का ज़रिया नहीं बनाया, बल्कि उसे एक चिंतनशील भाषा के रूप में स्थापित किया। उनका लेखन आज भी पाठकों को सोचने की प्रेरणा देता है। भारत सरकार ने उनके योगदान को मान्यता देते हुए 2002 में उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया था।