विपक्ष की राजनीति का मंच सज गया है दल से दल मिल रहे हैं क्या इनके दिल भी मिलेंगे सवाल है? सुर से सुर मिल रहे हैं। क्या सोच भी मिलेगी सवाल है? कदमताल से कदमताल मिल रहे हैं। ख्याल भी मिलेंगे सवाल है? सियासी मंच से सभी धुरंधर जब एक ही मंच पर अपनी ताकत का प्रदर्शन कर रहे हैं तो बीजेपी को हराने की काट विपक्ष के पास है सवाल है।
2024 चुनाव से पहले पार्टियों से सवाल
दरअसल चुनावी समीकरण व्यक्ति के आधार पर सेट होता है ना कि पार्टी की सिंबल पर। देश में जब भी चुनाव हुए हैं वह व्यक्ति केंद्रित हुए हैं। पार्टी केंद्रित नहीं हुए है, तो वहीं दूसरी तरफ ये भी सच है कि व्यक्ति से बड़ी पार्टी नहीं है। देश में राजनीतिक संस्कृति के प्रभाव में भी बदलाव और विरोधाभास है । देश में चुनाव प्रक्रिया और राजनीतिक व्यवहार में हारना और जीतना कई विषयों पर तय होता है। हर चुनाव से पहले मुद्दे सेट होते हैं। जनता की नब्ज को पकड़ने की कोशिश की जाती है। इसका उदाहरण आपको हर चुनाव से पहले देखने को मिल जाता है।
वोटबैंक वाली राजनीति एक बार फिर
उदाहरण आपके सामने है बीजेपी ने देश के एक बड़े वोट बैंक को साधा और अपनी सियासत को बुलंद करने के लिए हिंदूत्व के रास्ते पर चल रही है। सनातन और संस्कृति को मंच बनाकर सत्ता के शीर्ष पर काबिज हैं। आज विपक्ष के पास मोदी सेना की इस चाल की कोई काट नहीं है। दूसरा उदाहरण जन आंदोलन से निकली आम आदमी पार्टी का है। उसने दिल्ली में पानी, बिजली, शिक्षा और इलाज मुफ्त करके आम आदमी की नब्ज पकड़ी और दिल्ली में अरविंद केजरीवाल सरकार चला रहे हैं। केजरीवाल का यह अभियान और योजना यहीं नहीं रुकी उन्होंने देश के जिन भी राज्यों में चुनाव हो रहे हैं, वहां वो अपना मॉडल लेकर जा रहे हैं। उसी का परिणाम है कि पंजाब में आप की सरकार बन गई और गुजरात चुनाव के बाद पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिल गया।
भारत जोड़ो यात्रा का राहुल गांधी को मिला फल ?
देश का राजनीति का गुणा गणित समझने के लिए पांसा और आगे फेंकते हैं, और बात करते हैं देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस की कभी लोगों का विश्वास जीतकर देश में सबसे लंबे समय तक शासन करने वाली पार्टी कांग्रेस आज अपने अस्तित्व की तलाश में है। हालांकि अभी हाल में हुए कर्नाटक चुनाव में राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा का असर देखने को मिला था और पार्टी ने जीत दर्ज करके सरकार बनाने में सफलता हासिल की थी। लेकिन हिंदी वेल्ट वाले राज्यों में कांग्रेस की हालत क्षेत्रीय पार्टी से भी बद्तर है। पार्टी अपने अस्तित्व की तलाश कर रही है।
बिहार के पटना में हुई विपक्ष की महाबैठक ने देश की राजनीति में एक नया अध्याय जोड़ दिया है। कल तक विपक्षी पार्टियां एक दूसरे पर तंज कसती थी विचारधारा और कार्यशैली पर सवाल खड़ी करती थीं। उन सभी पार्टियों के दलों के नेता एक ही मंच पर नजर आए कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक के सभी नेता इस बैठक में शामिल हुए और बीजेपी को मात देने के लेकर एकजुटता दिखाने की कोशिश की साफ शब्दों में कहे तो बीजेपी को घेरने के लिए एजेंडा सेट करने की कोशिश की। इस बैठक की अगुवाई बिहार के सीएम नीतीश कुमार ने की बैठक में 17-18 दलों के शामिल होने की बात कही जा रही थी। लेकिन बैठक के दिन 15 दलों के करीब 30 नेता शामिल हुए जयंत चौधरी और केसीआऱ इस बैठक में नजर नहीं आए जिनके शामिल होने की उम्मीद की जा रही थी।
विपक्षी दलों पर उठ रहें सवाल
बैठक के बाद राजनीतिक पंड़ितों का अंकगणित कई दिशाओं में घूमता नजर आया कई मुद्दों पर सवाल उठ रहे हैं।.विपक्षी दलों का अगुवा कौन होगा सीटों का बंटबारा किस आधार पर होगा किन मुद्दों के साथ विपक्ष बीजेपी को घेरेगा हालांकि यह कोई पहला मौका नहीं है। जब किसी पार्टी ने गठबंधन करके चुनाव लड़ा हो…इससे पहले भी चुनावी गठबंधन हुए हैं। लेकिन गठबंधन के इतिहास पर जाएं और आकंडों की बात करें तो इसकी विफलता अपनी पूरी कहानी बोल देती है।
यूपी में अखिलेश यादव और मायावती का गठबंधन हुआ चुनाव परिणाम आते ही धाराशाई हो गया अखिलेश और कांग्रेस का गठबंधन हुआ। इसका भी हाल बेहाल हो गया और चुनाव का परिणाम आते ही गठबंधन टूटकर बिखर गया तो सवाल यही है कि जब दो दलों का आपस में गठबंधन नहीं चला तो इतने बड़े स्तर पर गठबंधन सफल होगा।
विपक्ष के महाजुटान को बीजेपी ने कहा फोटो सेशन
विपक्ष जहां बीजेपी को घेरने की कोशिश कर रहा है उसे हराने की बात कर रहा है। वहीं बीजेपी विपक्ष को पूरी तरह से हल्के में ले रही है और उसे विपक्ष का फोटो सेशन बता रही है। विपक्ष की बैठक को बीजेपी ज्यादा भाव देती नहीं दिख रही। बीजेपी ने इसे सांप नेवले का गठबन्धन करार दिया
पटना में विपक्षी एकता की बैठक की तारीख के साथ एक कई इत्तेफाक जुड़ चुके हैं। पहला तो ये बैठक इमरजेंसी की काली तारीख 25 जून से महज 2 दिन पहले हुई और दूसरी कि इस बैठक में इंदिरा गांधी के पोते राहुल गांधी का स्वागत वो लोग करते नजर आए जिन्हें इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी के दौरान जेल में डाला था। समय समय की बात है एक दौर में विपक्ष इंदिरा हटाओ के नारे देता था और आज मोदी हटाओ के नारे दिए जा रहे हैं। उस वक्त का मकसद भी साफ था कि लक्ष्य सिर्फ सत्ता थी, इस वक्त का लक्ष्य भी साफ है वो है सत्ता। क्योंकि महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी जैसे नारे सिर्फ चुनावी हैं ये बताने की जरूरत नहीं है। क्योंकि इन नारों को लेकर अगर किसी सियासी दल की जरा भी दिलचस्पी रही होती तो गरीबी हटाओ का नारा आज का तो है नहीं जबसे नारा दिया जाता रहा है तब तक गरीबी खत्म हो चुकी होती लेकिन बैठक हुई है तो जनता को दिखाने के लिए कुछ ना कुछ कहना ही है। राहुल गांधी की बात से ये तो साफ है कि इस बैठक में बहुत कुछ निकला नहीं है क्योंकि अभी से अगली बैठक की बात की जा रही है। ये और बात है कि सभी नेताओं ने एक सुर में कहा कि विचारधारा के स्तर पर सभी साथ हैं
नीतीश कुमार ने की थी महाजुटान की पहल
विपक्षी एकता के इस मुहिम की शुरुआत नीतीश कुमार की पहल पर हुई थी। नीतीश ने कई राज्यों का दौरा किया औऱ सभी दलों को साथ लाने की बात हुई। नीतीश ने दावा किया था कि इस बैठक में कुल 18 दलों के नेता शामिल होंगे और सभी एक कॉमन मिनिमम प्रोग्राम को तैयार करेंगे लेकिन जब बैठक शुरु हुई तो 15 दलों के नेता ही पहुंचें। उसमें भी सबके अपने अपने झमेले थे विपक्षी एकता की बात तो बाद में हुई
साफ है कि सबका अपना एजेंडा है और जब एजेंडे के साथ बातचीत होती है तो फिर कॉमन मिनिमम प्रोग्राम बन पाएगा इसमें संदेह है। बैठक को गृहमंत्री अमित शाह ने सिर्फ फोटो सेशन करार दिया है, और बैठक के बाद ये बात साबित भी होती दिखी क्योकि अरविन्द केजरीवाल प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहीं नजर नहीं आए सूत्रों की मानें तो अध्यादेश को लेकर कांग्रेस के रुख से वो खासे नाराज थे इसलिए बैठक के बाद निकलकर बाहर चले गए हालांकि विपक्ष की ओर से एकजुटता का राग खूब अलापा गया
कुल मिलाकर पटना में हुई विपक्ष की बैठक में क्या एजेंडा सेट हुआ ये किसी को समझ नहीं आया सिर्फ ये कहा गया कि मिलकर लड़ेंगे,..कैसे लड़ेंगे…सीटो का गणित क्या होगा सीटों के बंटवारे का हिसाब क्या होगा क्या कांग्रेस अपनी सीटें कुर्बान करेगी क्या क्षेत्रीय दलों के दबदबे वाले प्रदेशों में कांग्रेस समझौता करेगी। ऐसे तमाम सवाल अधूरे हैं…सवाल उठता है कि पहले की तरह ही विपक्ष तारीख पर तारीख वाली बैठकें करता रहा जाएगा और ऐसा हुआ तो भानुमती का कुनबा चुनाव तक बचेगा भी नहीं ये बड़ा सवाल है।