नई दिल्ली ऑनलाइन डेस्क। सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में मंगलवार को गहमागहमी बनी हुई है। कोर्ट आज तीन मामलों पर अपना फैसला सुनाएगी। निजी संपत्ति के प्रकरण पर सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों की बड़ी बेंच ने अपने अहम फैसले में कहा कि सरकार सभी निजी संपत्तियों का इस्तेमाल नहीं कर सकती, जब तक कि सार्वजनिक हित ना जुड़ रहे हो। कोर्ट के फैसले के बाद याचिकाकर्ता गदगद हैं।
9 जजों की बेंच ने की सुनवाई
सुप्रीम कोर्ट में निजी संपत्ति को लेकर याचिका दायर की गई थी। जिसकी सुनवाई मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने 9 जजों की बेंच ने की। सुनवाई पूरी करने के बाद कोर्ट ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। मंगवार को जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की बेंच ने अपना फैसला सुना दिया। बहुमत के जरिए बेंच ने अपने फैसले में यह व्यवस्था दी है कि सभी निजी स्वामित्व वाले संसाधनों को राज्य सरकार अधिग्रहित नहीं कर सकती। राज्य उन संसाधनों पर दावा कर सकता है, जो सार्वजनिक हित के लिए हैं और समुदाय के पास हैं।
पिछले फैसले को खारिज कर दिया
सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने बहुमत से जस्टिस कृष्णा अय्यर के पिछले फैसले को भी खारिज कर दिया। जस्टिस अय्यर के पिछले फैसले में कहा गया था कि सभी निजी स्वामित्व वाले संसाधनों को राज्य द्वारा अधिग्रहित किया जा सकता है। इसमें कहा गया था कि पुराना शासन एक विशेष आर्थिक और समाजवादी विचारधारा से प्रेरित था। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने साल 1978 के बाद के उन फैसलों को पलट दिया। जिसमें समाजवादी थीम को अपनाया गया था और फैसला सुनाया गया था कि राज्य आम भलाई के लिए सभी निजी संपत्तियों को अपने अधीन कर सकते हैं।
कुछ इस तरह से बोले सीजेआई चंद्रचूड़
सीजेआई चंद्रचूड़ ने कहा कि कुछ फैसले इस मामले गलत हैं, कि व्यक्ति के सभी निजी संसाधन समुदाय के भौतिक संसाधन हैं। कोर्ट की भूमिका आर्थिक नीति निर्धारित करना नहीं, बल्कि आर्थिक लोकतंत्र स्थापित करने की सुविधा प्रदान करना है। बता दें, चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूंड़ की अगुवाई वाली 9 जजों की बेंच दशकों पुराने इस विवाद पर सुनवाई कर चुकी है। चूंकि जस्टिस चंद्रचूड़ 10 नवंबर को रिटायर होने वाले हैं, ऐसे में उन्होंने इस मामले पर अपना फैसला मंगलवार को सुना दिया।
महाराष्ट्र सरकार लेकर आई थी कानून
1976 में महाराष्ट्र की सरकार एक कानून लेकर आई। जिसका नाम था महाराष्ट्र आवास और क्षेत्र विकास कानून। नए कानून में यह प्रावधान किया गया कि वे इमारतें जो समय के साथ असुरक्षित होती जा रही हैं, लेकिन फिर भी वहां कुछ गरीब परिवार किरायेदार के तौर पर रह रहे हैं, उन्हें ‘मुंबई बिल्डिंग रिपेयर एंड रिकंस्ट्रक्शन बोर्ड’ को सेस (एक तरह का टैक्स) देना होगा। साल 1986 में महाराष्ट्र सरकार ने इस कानून में दो और संशोधन किए। इनमें से एक का मकसद जरुरतमंद लोगों को उन जमीनों और इमारतों का अधिग्रहण कर दे देना। दूसरे संशोधन में तय हुआ कि राज्य सरकार उन इमारतों और जमीनों का अधिग्रहण कर सकती है जिन पर सेस लगाया जा रहा है।
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बॉम्बे हाईकोर्ट में चुनौती दी
ये संशोधन मुंबई के उन मकान मालिकों को रास नहीं आया जिनको संपत्ति इसकी वजह से खोने का डर था। लिहाजा, उन्होंने 1976 के कानून में हुए संशोधन को मुंबई के ‘प्रॉपर्टी ऑनर्स एसोसिएशन ने बॉम्बे हाईकोर्ट में चुनौती दी। बॉम्बे हाईकोर्ट ने अपने फैसले में पाया कि समानता के अधिकार का हवाला देते हुए अनुच्छेद 39बी के तहत बने कानून को चुनौती नहीं दी जा सकती। आखिरकार, दिसंबर 1992 में एसोसिएशन ने सुप्रीम कोर्ट का रूख किया और हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील की।
अब 9 जजों की बेंच ने सुनाया फैसला
2001 में सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) के 5 जजों की पीठ ने सुनवाई की और इसे एक बड़ी बेंच के सामने भेज दिया। 7 जजों की बेंच ने भी अगले साल सुनवाई किया मगर वह भी इसे नियत मकाम पर नहीं पहुंचा सकी। फिर मामला 9 जजों को भेज दिया गया। आखिरकार, 9 जजों की संविधान पीठ जिसमें चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस हृषिकेश रॉय, जस्टिस बी.वी. नागरत्ना, जस्टिस सुधांशु धूलिया, जस्टिस जे.बी. पारदीवाला, जस्टिस मनोज मिश्रा, जस्टिस राजेश बिंदल, जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह ने 23 अप्रैल, 2024 से इस मामले को विस्तार से सुना और 5 नवंबर को अपना फैसला सुना दिया।