प्रयागराज ऑनलाइन डेस्क। उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में महाकुंभ चल रहा है। हरदिन लाखों की संख्या में भक्त त्रिवेणी में डुबकी लगाकर पुण्ण कमा रहे हैं। मेला परिसर से करीब 1 किमी की दूरी पर अकबर के किले में अक्षयवट खड़ा है। जिसके दर्शन के लिए भक्तों का सुबह से लेकर देरशाम तक तांता लगा रहता है। इस वट वृक्ष को औरंगजेब और अंग्रेजों ने नष्ट करने का प्रयास किया था, लेकिन चमम्कारी पेड़ ज्यों की त्यों आज भी शान से खड़ा है। कुछ दिन पहले पीएम नरेंद्र मोदी भी वटवृक्ष के दर्शन किए थे और इसे कॉरिडोर के रूप में स्थापित किया था। सनातन एकता मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष पंडित अशोक पाठक कहते हैं, जब भगवान राम वनवास के लिए निकले तो सीता और लक्ष्मण के साथ इसी अक्षयवट के नीचे एक रात रुककर विश्राम किया था।
पत्ते हमेशा हरे-भरे रहे
संगमनगरी को तीर्थराज भी कहा जाता है। 144 वर्ष के बाद प्रयागराज में 13 जनवरी को महाकुंभ का आगाज हुआ। पहले दो दिन के अंदर करीब 5 करोड़ से अधिक भक्तों ने त्रिवेणी में डुबकी लगाकर नया कीर्तिमान गढ़ा। महाकुंभ में आने वाले भक्त वटवृक्ष के साथ ही जमीन पर लेटे हनुमान जी के दर्शन के लिए सुबह से पहुंच जाते हैं और देरशाम तक ये सिलसिला जारी रहता है। राष्ट्रीय अध्यक्ष पंडित अशोक पाठक अक्षयवट वृक्ष को लेकर बताते हैं कि अक्षय शब्द का अर्थ है कभी नष्ट न होने वाला। कहते हैं इसे अमरता का वरदान प्राप्त है। सदियों पुराना यह वृक्ष सृष्टि के अंत तक जिंदा रहेगा। पंडित अशोक पाठक बताते हैं, मुगल बादशाह औरंगजेब और अंग्रेजों ने इस वृक्ष को नष्ट करने की बहुत कोशिश की। इसे जलाया गया, काटा गया, मगर अक्षयवट कभी नहीं सूखा। इसके पत्ते हमेशा हरे-भरे रहे।
भगवान शिव-मां पार्वी ने लगा था वृक्ष
पंडित अशोक पाठक बताते हैं, भगवान शिव और पार्वती ने अपने हाथों से इस अक्षयवट वृक्ष को लगाया था। ब्रह्मा, विष्णु और महेश, तीनों देव यहां विराजमान रहते हैं। जब धरती पर प्रलय होता है तो उस समय भगवान विष्णु बालक रूप धारण कर इस पत्ते में जन्म लेते हैं और सृष्टि का संचालन करते हैं। इसलिए इस वृक्ष के पत्ते को नहीं तोड़ते हैं। जो पत्ते नीचे गिरते हैं, उसे श्रद्धालु प्रसाद समझ कर ले जाते हैं। पंडित अशोक पाठक बताते हैं, प्रभु श्रीराम को जब 14 वर्ष का वनवास मिला तो वह सीता जी और लक्ष्मण के साथ इसी वटवृक्ष के नीचे आए थे। यहीं से वनवास गए थे। वनवास की अवधि पूर्ण होने के बाद दोबारा यहां फिर आए थे। पेड़ को वरदान दिया था कि इस वृक्ष को अक्षयवट के नाम से जाना जाएगा। इनका कभी नाश नहीं होगा, इनके पत्ते हमेशा हरे-भरे रहेंगे।
ऐसे हुई सबसे ज्यादा उम्र
पंडित अशोक पाठक बताते हैं, त्रेता हो गया, द्वापर हो गया। अब कलयुग साढ़े 5 हजार साल का हो गया, जब तक यह धरती रहेगी तब तक यह वृक्ष रहेगा। क्योंकि इन्हें अमरता का वरदान मिला हुआ है। बताते हैं कि त्रेतायुग की अवधि 12 लाख 28 हजार वर्ष थी। जबकि द्धावर युग का आयू 8 लाख 64 वर्ष थी। 5 हजार वर्ष की उम्र कलयुग की भी पूरी हो गई है। ऐसे मे ंवटवृक्ष की उम्र करीब 21 लाख के करीब है। यहां आने से सभी पाप नष्ट होते हैं। मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। इनकी एक परिक्रमा पूरे ब्रह्मांड के बराबर है। पंडित अशोक पाठक बताते हैं, अक्षयवट का पहला उल्लेख वाल्मीकि रामायण में मिलता है। भारद्वाज ऋषि ने भगवान श्रीराम को इस वृक्ष के बारे में बताया था।
मां सीता ने दशरथ जी का किया था पिंडदान
जानकार बताते हैं कि राजा दशरथ की मृत्यु के बाद भगवान श्रीराम और मां सीता प्रयागराज आए थे। कुछ काम के चलते रामचंद्र जी को अयोध्या जाना पड़ा था। तब मां सीता ने अक्षयवट के नीचे बालू का पिंड बनाकर राजा दशरथ के लिए दान किया। उस दौरान उन्होंने अक्षय वट को पिंडदान से संबंधित दान-दक्षिणा दी। जब राम जी पहुंचे तो सीता ने कहा कि पिंड दान हो गया। दोबारा दक्षिणा पाने के लालच में नदी ने झूठ बोल दिया कि कोई पिंड दान नहीं किया है। पर अक्षय वट ने दक्षिणा मिलने के बारे में रामचंद्र जी को जानकारी दी। जिससे खुश होकर मां सीता ने अक्षयवट को आशीर्वाद दिया कि संगम स्नान करने के बाद जो कोई अक्षयवट का पूजन और दर्शन करेगा। उसी को संगम स्नान का फल मिलेगा।
फिर अकबर ने पेड़ को किले के अंदर करवाया
644 ईसा पूर्व में चीनी यात्री ह्वेनसांग यहां आया था। तब कामकूट तालाब में इंसानी नरकंकाल देखकर दुखी हो गया था। उसने अपनी किताब में भी इस बात का जिक्र किया। उसके जाने के बाद ही मुगल सम्राट अकबर ने यहां किला बनवाया। इस दौरान उसे कामकूट तालाब और अक्षयवट के बारे में पता चला। तब उसने पेड़ को किले के अंदर और तालाब को बंद करवा दिया था। अकबर के किले के अंदर स्थित पातालपुरी मंदिर में अक्षय वट के अलावा 43 देवी-देवताओं की मूर्तियां स्थापित हैं। इसमें ब्रह्मा जी द्वारा स्थापित वो शूल टंकेश्वर शिवलिंग भी है, जिस पर मुगल सम्राट अकबर की पत्नी जोधाबाई जलाभिषेक करती थीं। शूल टंकेश्वर मंदिर में जलाभिषेक का जल सीधे अक्षयवट वृक्ष की जड़ में जाता है। वहां से जल जमीन के अंदर से होते हुए सीधे संगम में मिलता है।