93 साल पहले कानपुर को अंग्रेजों से करा लिया गया था आजाद, कौन थे हुलास सिंह, जो बनाए गए कलेक्टर

भारत आज अपना 79वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है। गंगा के किनारे बसे शहर कानपुर में भी कलेक्ट्रेट में ऑन-बान और शान के साथ तिरंगा फहराया गया।

कानपुर। भारत आज अपना 79वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है। गंगा के किनारे बसे शहर कानपुर में भी कलेक्ट्रेट में ऑन-बान और शान के साथ तिरंगा फहराया गया। गली-मोहल्लों में भी तिरंगे की रौनक दिखी। आजादी के महापर्व पर हम आपको क्रांतिकारियों के गढ़ बिठूर के बारे में रूबरू कराने जा रहे हैं। इसी धरती से 93 साल पहले अंग्रेजों के खिलाफ आजादी का बिगुल नानाराव पेशवा और तात्या टोपे ने फूका था। महान रणबांकुरों ने यहां से अंग्रेजों को दो बार खदेड़कर बाहर किया था। कानपुर को आजाद कराने के बाद नवाबगंज को कहचरी घोषित किया गया और पहले कलेक्टर हुलास सिंह बनाए गए थे।

वर्ष 1857 को स्वतंत्रता आंदोलन का सबसे महत्वपूर्ण वर्ष माना जाता है। मेरठ से आजादी का बिगुल 10 मई 1857 को फूंका गया। इसके बाद आजादी के मतवालों का सबसे बड़ा अखाड़ा कानपुर बना। कानपुर में अंग्रेजों ने अपनी छावनी बना रखी थी। आजादी के दीवानों की नजर अंग्रेजों की छावनी पर पड़ी। तभी कुछ सिपाहियों ने विद्रोह किया लेकिन 21 मई 1857 को उन्हें फांसी दे दी गई। सिपाहियों में गुस्सा भरा हुआ था। सिपाहियों की बगावत से अंग्रेज डरे हुए थे। जांबाज सिपाही जहां अंग्रेजों को देखते हुए मार देते। ऐसे में अंग्रेज छावनी से बाहर कदम रखने से डर रहे थे। इस बीच, 26 मई 1857 को उस समय के मजिस्ट्रेट हिल्डर्सन ने नाना साहब से नवाबगंज स्थित खजाने की सुरक्षा मांगी।

नाना साहब ने तात्या टोपे के नेतृत्व में इसके लिए अपने सैनिक भेजे। इससे नाना साहब ने अंग्रेजों का विश्वास तो जीता लेकिन उन्होंने सैनिकों को विद्रोह के लिए प्रोत्साहित भी करना शुरू कर दिया। चार जून 1857 की रात पहले से तय समय पर विद्रोह कर दिया गया। सैनिकों ने नवाबगंज स्थित खजाना लूट लिया। छह जून को नाना साहब के नेतृत्व में नवाबगंज के अस्थाई किले पर धावा बोला गया। 21 दिन नाना साहब की तोपें किले पर गोले बरसाती रहीं। अंत में नाना साहब के सूरवीरों की जीत हुई। अंग्रेज डरकर भाग खड़े हुए। इतिहासकार बताते हैं कि 21 दिन की जंग में अंग्रेजों को भारी नुकसान हुआ।

सात जून को नाना साहब ने शहर के नागरिक प्रशासन को चलाने की व्यवस्था की और हुलास सिंह को शहर कोतवाल व चीफ मजिस्ट्रेट बनाया गया। इसके साथ ही दीवानी न्यायालय बनाए गए। 25 जून को जनरल ह्वीलर ने आत्मसमर्पण के लिए झंडा फहराया। 27 जून को अंग्रेजों के सत्ती चौरा घाट से शहर से जाने की व्यवस्था की गई लेकिन वहीं कुछ सैनिकों ने फायरिंग कर दी। इस पर अंग्रेजों ने नाव चला रहे मल्लाहों पर गोलियां चला दीं। 15 जुलाई को जनरल हैवलाक दोबारा पांडु नदी पार कर आ गया। उसी दिन बीबीघर में बंद सभी महिलाओं, बच्चों को मारकर कुएं में डाल दिया गया।

औंग में ज्वाला प्रसाद, टिक्का सिंह, लियाकत अली ने अंग्रेजों का सामना किया। 16 जुलाई को नाना साहब के नेतृत्व में अहिरवां के पास सैनिक पहुंचे। भीषण युद्ध के बीच 17 जुलाई को शहर पर फिर अंग्रेजों का कब्जा हो गया। पर नाना साहब और तात्या टोपे फिर से अपने सैनिक को एकजुट करने लगे। दूसरी बार तात्या टोपे शिवली, शिवराजपुर होते हुए शहर आ गए। 16 नवंबर 1857 को उन्होंने अंग्रेजों से मोर्चा लिया। 27 नवंबर की सुबह उन्होंने अंग्रेजों को पछाड़ दिया। 29 नवंबर को शहर फिर अंग्रेजों से मुक्त हो गया। इस हार के बाद अंग्रेज सरकार हिल गई। इलाहाबाद छावनी से हजारों सैनिकों को कानपुर भेजा गया। फिर धोखे से नाना साहब और उनके सैनिक पर हमला किया गया। इस लड़ाई में सैकड़ों क्रांतिकारी शहीद हुए। हालांकि नाना साहब और तात्या टोपे को अंग्रेज पकड़ नहीं पाए।

93 साल पहले कलेक्टर बनाए गए हुलास सिंह को अंग्रेजों ने अरेस्ट कर लिया। उन पर मुकदमा चलाया गया। अंग्रेज जज ने क्रांतिकारी को फांसी का सजा सुनाई। अंग्रेजों ने हुलास सिंह को कुछ माह के बाद फांसी पर लटका दिया। हुलास सिंह क जन्न कानपुर के ह्वीलर गंज में हुआ था। यहीं से वह निकल कर नाना साहब की सेना में शामिल हुए। उन्हें युद्ध नीति में महारत हासिल थी। नाना साहब तात्या टोपे के बाद सबसे ज्यादा हुलास सिंह पर भरोसा करते थे। अंग्रेजों ने हुलास सिंह की जन्म स्थली का नाम ह्वीलर गंज रखा हुआ था। सर ह्यू ह्वीलर की स्मृति में यह नाम पड़ा। बाद में भारतीयों ने अपने सेनापति हुलास सिंह के नाम पर इसे हूलागंज कर दिया।

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