UP Politics : क्या यूपी उपचुनाव को लेकर संजय निषाद अपनी लक्ष्मण रेखा लांघ रहे हैं। ये सवाल इसलिए क्योंकि संजय निषाद ने जिस तरह उपचुनाव में सीटों की मांग लेकर लखनऊ से लेकर दिल्ली तक एक किया है, उसके बाद तो यही लगता है कि संजय निषाद खुद को इतना बड़ा नेता मान चुके हैं कि उन्हें लगता है कि बीजेपी उन्हें उनकी हैसियत से ज्यादा भाव दे सकती है। उपचुनाव में मंझवा सीट पर दावेदारी ठोक रहे संजय निषाद को जब सीएम योगी ने भाव नहीं दिया तो जनाब ने दिल्ली दरबार में मत्था टेकना शुरु किया है। ये और बात है कि दिल्ली दरबार से भी संजय निषाद को कुछ मिलेगा कि नहीं ये भी संदेह के घेरे में हैं। क्योंकि केन्द्रीय नेतृत्व ने उपचुनाव की कमान पूरी तरह से सीएम योगी को सौंप रखी है, ऐसे में योगी की हरी झंडी के बिना उपचुनाव को लेकर कोई भी फैसला मुमकिन नहीं है।
सपा की राह पर निकले संजय निषाद
असल में संजय निषाद की सबसे बड़ी चिन्ता है अपनी पार्टी के जरिए परिवार को कैसे सेट किया जाए। खुद एमएलसी हैं औऱ कैबिनेट मंत्री हैं। छोटे बेटे श्रवण निषाद चौरीचौरा से विधायक हैं। बड़े बेटे प्रवीण निषाद एक बार गोरखपुर और एक बार संतकबीरनगर से सांसद रह चुके हैं। हालांकि 2024 का चुनाव प्रवीण निषाद हार गए। ऐसे में संजय निषाद मंझवा सीट से अपने बड़े बेटे प्रवीण निषाद को चुनाव लड़ाना चाहते हैं ताकि फैमिली पॉलिटिक्स की प्लानिंग पूरी हो सके।
शोषितों के अधिकारों की रक्षा के नाम पर राजनीति करते रहे संजय निषाद की पहली प्राथमिकता परिवार है ये बताने की जरूरत नहीं है। उपर से बीजेपी का साथ मिलने के बाद जिस तरह से उनका राजनीतिक करियर उपर उठा है उसके बाद से वो किसी भी तरह अपने परिवार के लोगों का करियर भी बनाने के चक्कर में हैं और यही वजह है कि उपचुनाव के जरिए वो अपने बड़े बेटे को भी विधानसभा पहुंचाना चाहते हैं।
अकेले चले तो खाली हाथ, उपर तब उठे जब मिला बीजेपी का साथ
संजय निषाद पेशे से होम्योपैथ के डॉक्टर हैं लेकिन सियासत में उनका सफर काफी उतार चढ़ाव से भरा रहा है। गोरखपुर के कैम्पियरगंज निवासी संजय निषाद ने कानपुर यूनिवर्सिटी से होम्योपैथ में मेडिकल डिग्री ली और गोरखपुर में अपना क्लिनिक खोला। इसी दौरान उनका रुझान राजनीति की ओर हुआ और 2008 में बामसेफ से जुड़ गए। शुरुआत में संजय निषाद ने निषाद एकता परिषद का गठन किया जिसके जरिए 500 से ज्यादा मछुवारा जातियों को जोड़ने की मुहिम शुरु की। 2016 में संजय निषाद ने बामसेफ को अलविदा बोलकर अपनी पार्टी निषाद पार्टी का गठन किया और पहली बार कैम्पियरगंज से चुनाव लड़े लेकिन हार गए।
हालांकि निषाद पार्टी को पहली कामयाबी मिली 2017 के चुनाव में जब उनकी पार्टी के टिकट पर भदोही से विजय मिश्रा ने जीत दर्ज की। इसी साल गोरखपुर ग्रामीण से संजय निषाद ने भी किस्मत आजमाई लेकिन हार गए। हालांकि 35 हजार वोट बटोरकर संजय निषाद ने अपनी मौजूदगी का अहसास जरूर कराया। 2018 में गोरखपुर लोकसभा सीट पर उपचुनाब में संजय निषाद ने सपा से गठबंधन किया और अपने बेटे प्रवीण निषाद को मैदान में उतारा, और हैरानी की बात ये रही कि गोरक्षपीठ के गढ़ में निषाद पार्टी ने सेंधमारी कर दी और प्रवीण निषाद चुनाव जीत गये।
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हालांकि 2019 में संजय निषाद ने बीजेपी से गठबन्धन कर लिया। जिसके बाद उनके सितारे बुलन्द होने शुरु हो गए, 2019 में उनके बेटे प्रवीण निषाद संतकबीरनगर से सांसद बने तो 2022 चुनाव से पहले संजय निषाद को एमएलसी बना दिया गया। 2022 के चुनाव में बीजेपी ने निषाद पार्टी को 16 सीटें दीं। जिसमें 10 निषाद पार्टी के सिम्बल पर और 6 बीजेपी के सिम्बल पर लडी गई जिसमें 11 सीटों पर निषाद पार्टी को जीत मिली
संजय निषाद के मोलभाव का सच क्या है ?
बीजेपी के भरोसे यूपी विधानसभा में कांग्रेस औऱ बसपा से भी बड़ी पार्टी बन जाने वाले संजय निषाद खुद को बड़ा नेता मान बैठे हैं। ये भूलकर कि उन्हें कामयाबी बीजेपी की वजह से ही मिली है। लोकसभा चुनाव में अपने बेटे तक की सीट नहीं बचा पाने वाले संजय निषाद को बीजेपी इसलिए भाव नहीं दे रही क्योंकि लोकसभा के चुनावों में संजय निषाद बीजेपी के लिए फायदेमंद नहीं बल्कि बोझ ही साबित हुए हैं। हालांकि संजय निषाद अभी भी अपने वोटबैंक को लेकर बेहद आत्मविश्वास से भरे हुए हैं यही वजह है कि बीजेपी से वो लगातार उपचुनाव में सीटों का हिस्सा मांग रहे हैं लेकिन बड़ा सवाल ये कि क्या वाकई बीजेपी संजय निषाद के दबाव में झुकेगी या फिर उन्हें उनके ही हाल पर छोड़ देगी।