आज हम जिस आजाद भारत में जी रहे हैं वह कई देशभक्तों की देशभक्ति और त्याग की वेदी से सजी हुई है. भारत आज जहाँ भ्रष्टाचारियों से भरा हुआ नजर आता है वहीं एक समय ऐसा भी था जब देश का बच्चा-बच्चा देशभक्ति के गाने गाता था. भारत में ऐसे भी काफी देशभक्त थे, जिन्होंने छोटी सी उम्र में ही देश के लिए अतुलनीय त्याग और बलिदान देकर अपना नाम स्वर्णिम अक्षरों में अंकित करवाया. उन देश भक्तों में से एक नाम आता है चंद्रशेखर आज़ाद.
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फिल्मी पर्दे पर जो कारनामे आज के हीरो बॉडी डबल करने के बाद भी नहीं कर पाते वह एक समय महान क्रांतिकारी और देशभक्त शहीद चन्द्रशेखर आजाद ने कर दिखाया था. शहीद चन्द्रशेखर आजाद की कहानी जब भी मैं पढ़ता हूं तो दिल के अंदर एक अलग सी भावना जाग उठती है जो इस भ्रष्टाचार में लिप्त भारतमाता को जगाने की बात करती है.
‘चिंगारी आजादी की सुलगी मेरे जश्न में हैं
इंकलाब की ज्वालाएं लिपटी मेरे बदन में हैं
मौत जहां जन्नत हो ये बात मेरे वतन में हैं
कुर्बानी का जज्बा जिन्दा मेरे कफ़न में हैं’
आजाद का जन्म 23 जुलाई, 1906 को उत्तर प्रदेश के जिला उन्नाव के बदरका नामक गाँव में ईमानदार और स्वाभिमानी प्रवृति के पंडित सीताराम तिवारी के घर श्रीमती जगरानी देवी की कोख से हुआ था.
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बचपन से ही उन्हें देशभक्ति में रुचि थी. 1920-21 के वर्षों में वे गाँधीजी के असहयोग आंदोलन से जुड़े. वे गिरफ्तार हुए और जज के समक्ष प्रस्तुत किए गए, जहां उन्होंने अपना नाम ‘आजाद’, पिता का नाम ‘स्वतंत्रता’ और ‘जेल’ को उनका निवास बताया. उन्हें 15 कोड़ों की सजा दी गई. हर कोड़े के वार के साथ उन्होंने, ‘वन्दे मातरम्’ और ‘महात्मा गाँधी की जय’ का स्वर बुलन्द किया. इसके बाद वे सार्वजनिक रूप से आजाद कहलाए.
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सन् 1922 में गांधीजी द्वारा असहयोग आन्दोलन को अचानक बन्द कर देने के कारण उनकी विचारधारा में बदलाव आया और वे क्रान्तिकारी गतिविधियों से जुड़ कर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सक्रिय सदस्य बन गये. इस संस्था के माध्यम से उन्होंने राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में पहले 9 अगस्त, 1925 को काकोरी काण्ड किया और फरार हो गये. बाद में एक–एक करके सभी क्रान्तिकारी पकड़े गए; पर चन्द्रशेखर आज़ाद कभी भी पुलिस के हाथ में नहीं आए.
27 फ़रवरी, 1931 का वह दिन भी आया जब इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क जो की आज कंपनी गार्डन के नाम से जाना जाता है. वहीँ देश के सबसे बड़े क्रांतिकारी ने अपना बलिदान दिया था. 27 फ़रवरी, 1931 के दिन चन्द्रशेखर आज़ाद अपने साथी सुखदेव राज के साथ बैठकर विचार–विमर्श कर रहे थे कि तभी वहां अंग्रेजों ने उन्हें घेर लिया. चन्द्रशेखर आजाद ने सुखदेव को तो भगा दिया पर खुद अंग्रेजों का अकेले ही सामना करते रहे. अंत में जब अंग्रेजों की एक गोली उनकी जांघ में लगी तो अपनी बंदूक में बची एक गोली को उन्होंने खुद ही मार ली और अंग्रेजों के हाथों मरने की बजाय खुद ही आत्महत्या कर ली. कहते हैं मौत के बाद अंग्रेजी अफसर और पुलिसवाले चन्द्रशेखर आजाद की लाश के पास जाने से भी डर रहे थे.
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आपको बताते चलें की आजाद की पिस्टल ‘बमतुल बुखारा’ इलाहाबाद संग्रहालय के शो केस में रखे हुए पांच दशक बीत चुके हैं लेकिन इसके फायर से होने वाली गरज आज भी बरकरार है। जी हां इसी कोल्ट पिस्टल से आजाद ने 1931 में तत्कालीन एसपी नाट बाबर के छक्के छुड़ाए थे।
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इलाहाबाद राष्ट्रीय संग्रहालय के लेबोरेटरी एक्सपर्ट्स हर वर्ष चंद्रशेखर आज़ाद की बमतुल बुखारा नामक पिस्टल की साफ़ सफाई कर उसे चालू हालत में रखने के लिए उपाय करते है. पिस्टल का शटल चेक किया जाता है. ये ऐसी पिस्टल हैं जिसमे 10 गोलियां एक साथ लगती है. इलाहाबाद संग्रहालय को चंद्रशेखर आजाद की ये पिस्टल तब मिली थी जब हेमवती नन्दन बहुगुणा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. चंद्रशेखर आजाद के बलिदान के बाद ये पिस्टल नाट बाबर अपने साथ इंग्लैंड ले गया था. 1970 में इंग्लैंड सरकार ने इसे भारत सरकार को इसे वापस सौंप दिया था. भारत सरकार से यह पिस्टल उत्तर प्रदेश सरकार को और फिर इलाहाबाद राष्ट्रीय संग्रहालय को मिली.